नहीं नहीं, मैं यहाँ विपश्यना के विज्ञापन के लिए नहीं और ना ही मुझे इस काम के किसी ने पैसे दिए हैं। यह बस मेरा एक भाव है, जिसको मैं यहाँ व्यक्त….या यूँ कह लीजिए कि निकालना चाहती हूँ।
‘मेरा कहा मान, बस एक बार जाकर देख। 10 दिन का होता है। दुबारा जाना है या नहीं, इसका फ़ैसला उस 10 दिन के बाद करना।’- पिताजी जी जाने कितने सालों से ये बात मुझे कह रहे थे, पर मैं एक ज़िद्दी बच्चे की तरह उनकी बात अनसुनी कर रही थी। ऐसा लगता था कि सिर्फ मुझे ही क्यों कहा जा रहा है? क्या मैं ही पागल दिखती हूं, जो इतनी ‘बोरिंग ज़िंदगी’ के लिए हां कह दूं। बात बस टलती ही रही।
कुछ साल बीते। एक दिन यूं ही अपने एक दोस्त के साथ बैठी थी। ग़लतियों का पिटारा मैंने अपना खोल रखा था और बातें हो रही थी उन नादानियों की, जो मैं करती रही। मैंने कहा कि मन करता है कि कहीं ऐसी जगह भाग जाऊं, जहां मुझे कोई नहीं जानता हो। कोई फोन कॉल नहीं, कोई बातचीत नहीं…कुछ भी नहीं। दोस्त मेरी बात सुनकर हंसा और हंसते हुए ही कहा कि विपश्यना तुम्हारे लिए सही जगह है। मैं हंसने लगी और जवाब दिया कि मेरे पिताजी बनने की कोशिश ना करो तुम। वो भी इसके लिए सौ बार बोल चुके हैं। दोस्त अपनी तरफ से समझाने लगा, बहुत सारे उदाहरण भी दिए। मैंने भी हंस कर कहा कि ठीक है, जाकर देखती हूं। फिर क्या, फॉर्म भरा गया और मैं पहुंच गई 10 दिन के लिए एक अलग ज़िंदगी को जीने के लिए।
शहर से बाहर, खेतों से गुज़रते हुए, पूरी शांति को अपने अंदर समेटे हुए विपश्यना का आश्रम बना हुआ था। मैं जब पहुंची तो कई सारे लोग पहले से ही मौजूद थे। हमने अपने रुम में अपना सामान रखा, दिल पर पत्थर रख कर मोबाइल फोन जमा करवाया। सब एक दूसरे से बातें कर रहे थे कि ये कुछ दिन हमारे कैसे जाने वाले हैं।
‘तुम पहली बार आई हो यहां?’ मेरे ही उम्र की एक लड़की ने मेरे से पूछा। मैंने हंस कर हां में जवाब दिया। राधा नाम था उसका। कुछ ही घंटे में हम बहुत अच्छे दोस्त बन गए। विपश्यना को लेकर जो डर थे, वो राधा ने निकाले। शाम से हमारी शिक्षा शुरु हो गई। हमें बोलना, लिखना, संगीत सुनना या कुछ पढ़ने की इजाज़त नहीं थी। नज़रें झुका कर चलना था, बिना किसी को देखे। खाने-नाश्ते के समय भी अकेले ही जाना था। सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि दिन के 12 घंटे हमें ध्यान (मेडिटेशन) करना था। आश्रम में बीच में दीवार थी। एक पार महिलाएं और दूसरे पार पुरूष रहते थे। मेडिटेशन हॉल में सब इकट्ठे होते थे। भोजनालय में भी दीवार खड़ी की गई थी और महिला-पुरष के बीच वहां भी दीवार थी। महिलाओं और पुरुषों के लिए 2 टीचर्स थे। किसी भी परेशानी या शंका की स्थिति में हम उनसे बात कर सकते थे। 4 सेविकाएं थीं, जिन्होंने अपनी श्रद्धा से सेवा देने के काम को चुना था। हमें उठाना, समय पर मेडिटेशन हॉल में भेजना, भोजनालय मे भोजन सर्व करना…ये सारी जिम्मेदारी उन्होंने ले रखी थी। मंदिर की घंटी बजाकर वो अलार्म घड़ी का काम करती थीं।
साधना शुरु हुई। शांति का वातावरण था चारों तरफ, जैसा मुझे हमेशा से चाहिए था….पर 12 घंटे की साधना, नहीं, ये मुझे नहीं चाहिए थी। कमर, कंधा, गर्दन…आप ऐसा समझिए कि शरीर का कोई भाग ऐसा नहीं, जहां मुझे उस वक्त दर्द ना हो रहा हो। सुबह 4 बजे उठना, 4.30-6.30 तक साधना, 6.30-8 बजे तक नाश्ता और नहाना, 8-11 बजे तक साधना, 11-1 बजे तक लंच और आराम, 1-5 फिर से मेडिटेशन, 5-6 डिनर और टहलना, 6-7 मेडिटेशन, 7-9 गोयंका सर का लेक्चर, 9-9.30 गुरु के साथ सवाल जवाब और 9.30 लाइट ऑफ़, मतलब गुड नाइट। उफ्फ, लगा कि इतनी दूर अब इस ज़िंदगी को जीने के लिए तो नहीं आई थी ना। 3-4 दिन तक तो मैं भागने के बहाने ही ढूंढती रही। साधना में बैठे रहने पर जैसे ही ‘अनिच्च’ शब्द सुनाई देता, एक राहत मिलती कि चलो, पूरी हुई साधना। लगा कि कहां आकर फंस गई,पर बार बार पिताजी की बातें ध्यान में आ रही थी कि ये 10 दिन अपनी ज़िंदगी के वहां दे देना, फिर से जाने या ना जाने का फैसला तेरा, पर ये 10 दिन बिना कुछ जज किए वहां रह। मैंने रहने का फैसला किया। इसे जादू नहीं कह सकती मैं पर जैसे जैसे वक्त बीता, मुझे वो पद्धति, वो टैक्नीक समझ में आई और मुझे मज़ा आने लगा। कुछ तो बह रहा था मेरे अंदर या यूं कहिए कि कुछ तो सदियों से जमा हुआ निकल रहा था मेरे अंदर से। मैं ध्यान करते हुए कई बार रोई। टीचर से शेयर भी किया। टीचर ने समझाया कि ये विकार हैं, जो तुम्हारे अंदर से निकल रहे हैं। मैं भी मानने लगी क्योंकि सच बात तो ये है कि मुझे मेरी की हुई ग़लतियां ध्यान में आ रही थी और मन बार बार भर जा रहा था। हां, मां-पा को खोने जैसे डर ने भी सर उठाया। 6-7 दिन तक यही सिलसिला चला कि जब ध्यान लगाने बैठूं, रोने लगूं। फिर जादू हुआ और मेरे दिमाग में गोयंका सर की ये बात समझ आई कि जो हो चुका है, वो हो चुका है। कोई रबड़ ऐसी नहीं, जो पिछला मिटा सके। हां, नया ज़रुर लिखा जा सकता है। मैं सब भूल रही थी। मेरी ग़लतियां, मेरा डर, मेरा अतीत और मेरा भविष्य…हां, मैं सिर्फ आज, अभी इस पल के बारे में सोच रही थी।
साधना शुरु होने से पहले कई लोगों से बातें करने का मौका मिला था। राधा से भी बातें करने का काफी मौका मिला। विपश्यना में आने के बाद ज़िंदगी में होने वाले बदलाव को उसने मुझसे शेयर किया था। मोहन के साथ जुड़ी हुई थी और लंबे समय से जुड़ा रिश्ता बिखरा था उसका। सब कुछ संभाला जा सकता है, पर प्रेम में बिखराव कई चीज़ें बिखेर देता है। राधा भी बिखरी सी ही हालत में 2 साल पहले पहली बार विपश्यना आई थी। 3 साल पहले जब राधा-मोहन अलग हुए तो राधा ने उसे कई चीज़ों का अंत मान लिया था। राधा ने बताया कि वो दुखी थी। उसका कहना था कि जाने वाले एक झटके में चले जाते हैं, दिल तोड़ देते हैं पर वो इस बात को नहीं समझते कि वो सिर्फ एक दिल नहीं तोड़ते। वो कई ज़िंदगियां बिखेरते हैं। ना वो उस वक्त को वापस कर सकते हैं, जो हमने गुज़ार दिए उनके चक्कर में और ना वो उन तमाम भावों को फिर से संवार सकते हैं, जो हमने उनपे इंवेस्ट किया। विपश्यना में आकर मैं उस समय से वापस आ पाई हूं, जिसमें ना मैं जी पाती थी और ना मर पाती थी। राधा का कहना था कि उसकी अच्छी बातों को सुनकर मोहन अक्सर उसे अपनी डायरी में लिख लेता था। मैं सोच रही हूं कि काश राधा की ये बातें भी वो अपनी ज़िंदगी की डायरी में लिख सके कि बिखेरने या तोड़ने में कभी सुख हासिल नहीं होता।
रेशमा से भी बात हुई। पति बहुत शराब पीता था और तकरीबन 10 साल पहले वो दुनिया से चला गया था। एक बेटी थी जो जॉब की तैयारी कर रही थी। रेशमा अपनी मॉं और भईया-भाभी के साथ रहने लगी थी। समाज के तानों को झेलना आसान ना था, पर उसने उस सच को स्वीकारा, जो उस वक्त उसकी ज़िंदगी में हो रहा था। वो शांत हो चली थी और किसी से कोई शिकायत किए बिना अपने और अपने बच्चों की ज़िंदगी को एक दिशा दे रही थी।
अमेरिका से आई रोशेल से बातें हुई। मुझे बेहद आश्चर्य हुआ क्योंकि उसके और मेरे दर्द जुड़वा निकले। उससे मिलकर लगा कि सब संभव है। दर्द का आना भी और दर्द का जाना भी।
मैं सबकी बातें सुन रही थी। पहले दिन मुझे ये सब अजीब लगा, पर आखिरी दिन मुझे वो तमाम बातें बहुत अच्छे से समझ में आ रही थीं। मैं भी तो इस बीच कई ख़्यालों से गुज़री। तुम्हारा ख़्याल भी आया। राग-द्वेष, हां, यही वो दो भाव थे, जो तुमको लेकर रहे। हर किसी के यही भाव रहते होंगे हमेशा ही। प्यार में हैं तो राग का भाव, नफरत या गुस्से में हैं तो द्वेष का भाव, चाहे वो अतीत हो या भविष्य, या फिर वर्तमान ही क्यों ना हो। मैं खुद को देख रही थी। एक वक्त में तुमको बेइंतहा चाहने वाली मैं तुमसे नफरत करने लगी थी। विपश्यना ने मेरी इस सोच को एक नई दिशा दी थी -‘समता का भाव’। हां, मैंने स्वीकारा उन तमाम बातों को उसी रुप में, जिस तरह वो मुझ संग हुई थीं। मैं खुद को समझना नहीं चाह रही थी, मैं खुद को बनाना चाह रही थी, जो विपश्यना में ज़रा सा ही सही, संभव हो पाया। मैं बाहर आई उन तमाम दर्द, तमाम डर से, जो मुझमें समाए हुए थे। मैं किसी को किसी बात से रोक कर अपने दर्द पर काबू नहीं पा सकती थी, मैं खुद उसे स्वीकर करके ही उससे बाहर आ सकती थी, जो मैंने किया।
मेरे मन में डर था कि जब मैं इस दुनिया से बाहर, रियल वर्ल्ड में जाऊंगी, तब भी क्या खुद को इस तरह संभाल या समझा पाऊंगी? टीचर से इस डर को शेयर किया। टीचर ने समझाया कि प्रैक्टिस करनी होगी। मैंने कहा माना है और प्रैक्टिस जारी रखी है। परिवार को खोने का डर अब भी है। नतीजा ये हुआ कि एक दिन बाज़ार में एक कम उम्र का जोड़ा दिखा, जो एक खंभे के पीछे खड़े होकर एक दूसरे को चूमने में लगा था। मैंने बेधड़क वहां जाकर उन्हें डांटना शुरु कर दिया – ‘क्या इस चीज़ की उम्र है तुम्हारी और क्या ये सब ऐसे होना चाहिए? किसी ने एमएमएस बनाकर फैला दिया और मां बाप ने देख लिया तब? कभी सोचा है कि उन पर क्या गुज़रेगी?’- मैं अपने पर हैरान थी कि मैं इस तरह किसी को कुछ भी कैसे कह सकती हूं, पर साधना करते वक्त मां बाप को कई बार मैंने मरते देखा था और मैं उनको खोने के डर से बाहर नहीं आ पा रही थी। लगा कि हम कुछ भी कर लें ज़िंदगी में, मां-बाप को दुखी नहीं कर सकते। हम सबके अंदर ये डर रहता है, मेरे अंदर भी है…पर हां, अब दर्द नहीं। तुम्हारे से और तुम जैसी तकलीफों से मैं बाहर हूं। मुझे कोई शिकायत भी नहीं।
शांति जहां जिस रुप में मिले, उसे ले लेना चाहिए। विपश्यना की ख़ासियत भी यही है कि वो किसी शब्द, रुप पर ज़ोर नहीं देता। आखिरी दिन हमें मैत्रैयी भावना सिखाई गई। एक दिन पहले फोन दिया गया। मैंने सबसे पहले मां को फोन किया। बताया कि सबसे ज़्यादा तुम्हारी याद आई। पिताजी को फोन किया और कहा कि उनकी शुक्रगुज़ार हूं, इस रास्ते पर भेजने के लिए। गौतम बुद्ध ने विपश्यना को अपनाकर निर्वाण पाया था। मैं बस थोड़ी शांति पा लूं और समता का भाव अपना सकूं, यही कोशिश है। मेरी ज़िंदगी में शायद यही वो 10 दिन थे, जब मैंने कोई ग़लत काम नहीं किया।
अगर शब्द सच में सच होते हैं तो मैं दिल से चाहती हूं कि जो जहां जिसके साथ जिस परिस्थिति में है, वो वहां उस रुप में खुश रहे। तुमको मौका मिले तो ज़रुर जाना एक बार इस ज़िंदगी को जीने। तुम भी…तुम भी…और तुम भी। हां, तुम सब जाओ। इसका एक्सपीरियंस लेकर अच्छा ही लगेगा।
अंत में बस वही तीन शब्द कहना चाहती हूं, जो गोयंका सर कहा करते थे-
‘भवतु सर्व मंगलम्’
सबका मंगल हो
U always expressed urself beautifully in ur posts …be happy …Jo tumhe mila is session se vo hamesha tumhare sath rahe ….l’ll try to attend this session in near future for sure ..
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hamesha khush raho
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बहुत बढ़िया लिखा। तुम्हारे शब्द सच्चे लगते हैं। दुआ है कि तुम्हें हर खुशी मिले
शांति का मार्ग सुझाने के लिए धन्यवाद।