कुछ पन्ने


सुनो ना,
ये तुम जो आ गए हो
खटखटाया क्यों नहीं दरवाज़ा
आए कहाँ से ये तो बोलो
आने की कुछ वजह तो होगी
बोलो है ये साथ कब तक
सबसे अक्सर सुना है मैंने,
रहता नहीं है कुछ हमेशा
हाँ,
भोगा भी है इस सच को मैंने
जिसको सब हैं कड़वा कहते

 

प्रिये,
आया हूँ मैं उस नगरी से,
जहाँ देखे सब तेरे सपने
मेरी वजह बस तुम हो साथी
साथ तब तक, जब तक हम
हाँ,
कुछ नहीं जो रहे ‘हमेशा’
ना ही मैं ख़ुद रह पाउँगा
ना ही तुम ख़ुद रुक पाओगी

 

इतने सच के साथ सुनो ना,
हम तुम क्या संग चल पाएँगे?
छोड़ दोगे या तोड़ दोगे,
दे दो मुझे हिसाब ये सारा

 

प्रिये,
ना तोड़ूँगा
ना छोड़ूँगा
ज़िंदगी के कुछ लम्हों को
आगे मैं सरका दूँगा
साथ से उसे सजा दूँगा

 

सच ही कहते हो तुम शायद
ज़िंदगी का जब नहीं भरोसा
फिर साथ क्यों चाहूं उम्र भर का
बढ़ा दो मेरे जीवन के कुछ पल
जब लिखूं,
ज़िंदगी की किताब मैं अपनी
कुछ पन्ने तो खूबसूरत हों…

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2 thoughts on “कुछ पन्ने

  1. Sach hi hai, jab tak jiska sath mile, le lena chahiye. Zindagi aise hi zara zara sa badh ke guzar jati hai.

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