दस्तक


ख़्वाहिशों का क्या है? बढ़ती रहती हैं वो तो बस। खुराक पूरी मिल जाए तो सही दिशा में बढ़ेंगी, नहीं तो जंगली घास की तरह ही सही, बढ़ तो जाती ही हैं। माही की ख़्वाहिशें भी ऐसी ही थी, जंगली घास की तरह। खुराक मिली नहीं, तो बस यूँ ही बढ़ती गई…

ज़िंदगी में जाने कितने ही सपने टूटते हैं। जाने कितनी दफ़ा दिल टूटते हैं। माही का भी टूटा था, पर उसके दिल का वो कोना, जो ‘अवि’ ने तोड़ा था, उसका दर्द सबसे ज़्यादा रहा…उसकी कसक भी सबसे ज़्यादा रही। अपने प्यार से लुट जाने की तड़प कभी पीछा नहीं छोड़ती। माही भी अपने पथराए से मन और शरीर के साथ बस जी रही थी। आलम ये था कि आस पास उसने नागफनी उगा ली थी। कैक्टस को छूने की इच्छा भला कहां किसी की रहती है? ज़िंदगी के सारे खिड़की दरवाज़े भी माही ने कील ठोक कर बंद किए थे, जिससे कोई भी उसे खोलकर अंदर प्रवेश ना पा सके। माही शायद अंदर से भरी हुई थी, या शायद पूरी खाली थी। अवि के प्यार ने अगर माही की ज़िंदगी में कचनार के फूल उगाए थे, तो जाते जाते वो कैक्टस भी गिफ्ट कर गया था…

माही अपनी खाली ऑंखों के साथ गुज़रते सारे मंज़र बस देखती रहती। चहकती माही अब बस मुस्कुराती थी। चेहरे पर शांति के भाव, जैसे अब किसी चीज़ का कोई असर उस पर ना होगा। वो अपने उस बंद आशियाने में खुश रहने लगी थी….या शायद उसने उसी में खुशी ढूंढ ली थी। कई लोग आते, दस्तक देते, जवाब ना पाकर चले जाते। कई लोग ऐसे भी होते, जो कुछ दिन उसके घर के बाहर खड़े होकर अपने होने का एहसास करवाते। माही बेअसर सी ही रही। कुछ दर्द शायद सारी सोच भी अपने साथ ही ले जाते हैं।

एक दिन फिर किसी ने माही की ज़िंदगी का दरवाज़ा खटखटाया। माही ने जवाब नहीं दिया। बाहर से आवाज़ आई-‘ तुम नहीं खोल रही तो क्या मैं ख़ुद अंदर आ जाऊं?’ माही इन सबसे परेशान हो चुकी थी। उसने भी कह दिया – ‘आ सकते हो तो आ जाओ।’

भरोसा बहुत बड़ी चीज़ होती है। विश्वास हो तो अपने लिए सब मुमकिन लगता है और दूसरों के लिए सब नामुमकिन। माही को भी अपनी खुद की लगाई बेड़ियों पर पूरा यकीं था कि उसे कोई कभी पार नहीं कर पाएगा। 5 दिन बीत गए, बाहर से कोई आवाज़ नहीं आई। मही तो वैसे ही निश्चिंत थी। सब वैसे ही चलता रहा, जैसे चल रहा था।

वो सुबह ज़रा अलग ही थी। कम से कम माही के भरोसे से तो काफी अलग। माही ने जब अपनी आंखें खोली तो सिरहाने एक मुस्कुराते चेहरे को बैठे पाया। वो हड़बड़ा कर उठी। देखा तो खरोंचों से भरा एक चेहरा उसे ही देखा जा रहा था। माही कुछ बोल ही नहीं पाई। शायद अटक गई थी इस सोच में कि इतने मजबूत बाड़ को तोड़कर कोई कैसे उसकी ज़िंदगी के घर में घुस सकता है। माही कुछ कहती, उससे पहले ही उस चेहरे ने अपने होंठ हिलाए –
‘हैलो! मैं अहान। तुमने दरवाज़ा खोला नहीं, तो मैं खुद ही अंदर आ गया। तुम ठीक हो? इतने दिन से ऐसी बंद ज़िंदगी जी रही हो, दम नहीं घुटता तुम्हारा?’

माही बस उसे देख रही थी। कैक्टस के कांटों ने अहान को कई जगह से ज़ख़्मी कर दिया था। दरवाज़े और खिड़कियों की कीलों ने उसके कपड़े भी जगह जगह से फाड़ दिए थे। कई जगह ज़्यादा लग गई थी इसलिए खून भी निकल रहा था, पर अहान की ऑंखों में चमक थी। एक उत्साह और विश्वास था, जैसे वो संजीवनी बूटी लेकर आया हो और उससे माही की ज़िंदगी में सब ठीक हो जाएगा। माही हैरान थी अहान की इस हरकत पर। ख़ैर, कुछ तर्क-वितर्क के बाद माही-अहान की दोस्ती हुई।

माही को हमेशा लगता था कि अवि से उसे जो कुछ मिला, उसे कोई दूसरा कभी नहीं दे पाएगा…पर अहान ने माही की सोच को ग़लत साबित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। माही ख़ुद हैरान थी अहान को देखकर। उसने बोलकर माही की ज़िंदगी में दस्तक दी थी और अवि के दर्द से उसे बाहर भी लेकर आ रहा था। माही को अहान पर विश्वास नहीं था, पर अविश्वास करने की कोई वजह भी उसे नहीं मिल पा रही थी। ज़िंदगी के रुप में जब कोई आपको छलता है तो उसका खामियाज़ा आने वाले कई लोगों को उठाना पड़ता है। अहान ने भी उसकी कीमत चुकाई, पर वो हटा नहीं। माही खुश हो रही है धीरे धीरे…एक बार फिर से माही की ज़िंदगी मुस्कुरा रही है। डरते डरते ही सही, माही की ख़्वाहिशें हंस रही हैं…शायद सही दिशा में बढ़ भी जाएं।

अहान ने माही की ज़िंदगी में दस्तक दी और पट खोला। अब जब ये पट खुल चुका है, तो कुछ जाएगा और कुछ आएगा…

One thought on “दस्तक

  1. दरवाज़ों का खुलना हमेशा अच्छा है। बहुत अच्छा लिखा। बहुतों के दीवन के मर्म को छुआ है तुमने। दर्द देने वाले हैं तो मरहम लगाने वाले भी मिल ही जाते हैं। दर्द देने वाला हमेशा खुद दर्द में रह जाता है जबकि दर्द सहने वाला उससे ऊबर कर बाहर आ जाता है। ज़िंदगी में हमेशा खुश रहो।

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