रिटायरमेंट


आज पिताजी रिटायर हो गए। दिलो दिमाग में अजीब सी हरकतें हो रही हैं…कुछ दिनों से हो ही रही थीं। कैसा लग रहा होगा उन्हें? आज आखिरी बार ऑफ़िस जाना है और आने वाले कल से वो बंद। एक दिन में ही ज़िंदगी का वो रुटीन बदल जाएगा, जो पिछले 35 सालों से चला आ रहा था। कल सुबह जब वो उठेंगे, तो कैसा महसूस करेंगे? उनकी दाढ़ी, जो 8 बजे तक बन जाया करती थी, अब उसका समय शायद आगे खिसक जाए। शायद किसी किसी दिन उसका समय ही ना आए।

ये मेरे मन के डर थे, या यूं कहिए की सोच और हड़बड़ाहट थी, जो पिताजी के रिटायरमेंट को सोच कर आती थी। रहा नहीं गया तो फोन पर ऊंगलियों ने उनका नंबर डायल कर दिया।
‘कैसा लग रहा है? अब आज से आप ‘फ्री बर्ड’ होने वाले हैं।’ – मैंने पिताजी से पूछा। पिताजी हंसे और हंसते हुए कहा-
‘समाज, ऑफ़िस या परिवार के बंधन से मुक्त होकर हम ‘फ्री बर्ड’ नहीं होते, अपनी सोच से होते हैं।’

बात पिताजी की सौ आने सही थी। वो आज़ाद थे अपनी सोच से। कई लोगों की सोच को उन्होंने आज़ाद किया था। जब भी उनको देखती, फ़क्रऔर गुरुर के मिले जुले भाव से भर उठती कि वो मेरे पिताजी हैं। ऐसा लगता कि हर घर में ऐसे पिताजी होने ही चाहिए।

‘कल से आप क्या करेंगे?’ मैंने अपनी घबराहट को छिपाते हुए पूछा।
‘एक नई पारी की शुरुआत। बहुत कुछ करना है। बहुत कुछ सोच रखा है। एक महीना दे मुझे, फिर बताउंगा कि क्या कर रहा हूं।’

मैं खुश हो रही थी उनको इतना संभला देखकर। मन में हलचल होगी उनके, पर उन्होंने आज तक अपनी किसी हलचल से हम सबकी ज़िंदगी में कोई हलचल नहीं आने दी। समुद्र की तरह थे। शांत, गंभीर और गहरे। सब कुछ को अपने अंदर समेटने की जो काबिलियत उनमें देखी मैंने, वो कहीं और कभी भी देखने को नहीं मिली।

हां, बदलती तो है ज़िंदगी रिटायरमेंट के बाद। बहुत कुछ होता है, जो छूट जाता है। पिताजी की ज़िंदगी का भी एक बड़ा हिस्सा छूटने वाला है आज। बताया उन्होंने कि 3-4 दिनों से विदाई वाला ही माहौल है ऑफिस में और आज उसका भी समापन हो जाएगा। उनका गला नहीं रुंधा, पर मेरी नज़र धुंधली हो गई।

अब मां सुबह नाश्ते के समय दोपहर का भोजन नहीं परोसेगी। पिताजी  अब अख़बार को आराम से घर के सोफे पर बैठकर पढ़ पाएंगे। मुंबई की लोकल ट्रेन के धक्के अब शायद हर दिन ना खाने पड़े। अब शाम की चाय मां – पिताजी की एक साथ हुआ करेगी। सोच रहीं हूं तो लग रहा है कि रिटायरमेंट इतनी बुरी चीज़ भी नहीं।

बच्चे अपनी जगह स्थिर हो जाए तो रिटायरमेंट शायद नहीं अखरता होगा, ऐसा मैं सोचती थी…पर शायद मैं ग़लत थी। एक उम्र की सीमा हमारे कार्य करने की सीमा को निर्धारित करती है, ये बात अखरती तो ज़रूर होगी। फिर भी पिताजी शांत और संयम दिख रहे हैं…हमेशा की तरह।

दिल से चाहती हूं कि खाली होने का एहसास पिताजी को छू भी नहीं पाए। ऑफिस की ज़िम्मेदारियों से परे वो अब उसको करें, जो ऑफिस की वजह से अब तक कर ना पाएं। सब कह रहे हैं कि ये उनके ज़िंदगी की दूसरी पारी शुरु हुई है, तो मैं भी यही सोच कर खुश हो रही हूं। पिताजी की इस दूसरी ज़िंदगी की पारी का हम सबकी ज़िंदगी में भी स्वागत है।

कोई ऐसा नहीं होता, जिसे सब प्यार करें… पिताजी ने इस धारणा को तोड़ा है। अनकही को सुनना, जादूगर बन कर मन के हर भाव को जानना और समझना, छोटे से लेकर बड़ों तक का अज़ीज़ बनना, सब कुछ संभाल कर खुद को संभालना….कुछ ऐसे हैं मेरे पिताजी…

आप मेरी ज़िंदगी और मेरी कहानियों के सबसे मजबूत किरदार हैं पापा…

रिटायरमेंट एक सफ़र है, मंज़िल नहीं। आपकी इस नई शुरुआत में, हम सब आपके साथ हैं…

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