मायरा के जिस्म पर अनुमेह की रेंगती उंगलियां, मानो चंदन के पेड़ से लिपटा सांप। पूरा आधिपत्य अनुमेह का था। सांसें आपस में टकरा रही थीं। सुन सकती थी मायरा अपनी खुद की धड़कनों को। सदियों बाद इस छुअन का एहसास उसके पूरे बदन को महसूस हो रहा था। मायरा के सीने से लिपटा अनुमेह एक मासूम बच्चे की तरह लगा। उनके बीच कोई ज़िरह नहीं थी। कोई भी बहस का मुद्दा नहीं था। गर कुछ दोनों के दरमियां था उस वक्त, तो सिर्फ एक सुकून…प्यार…शांति भरा एहसास…
‘क्या लगता है तुम्हें? दर्द किसे कहते हैं?’ – एक ढ़लती सी शाम में अनुमेह ने पूछा था।
‘मेरे लिए दर्द एक भाव है। महसूस करो तो है, नहीं करो तो नहीं है। तुम्हारे लिए?’ – मायरा ने अनुमेह का मन जानना चाहा।
अनुमेह थोड़ी देर ख़ामोश रहा। ‘ जब हमें लगता है कि हम ये कर सकते थे और वो नहीं कर पाए, तो मेरे लिए वो सोच दर्द है।’ – एक लंबी सांस छोड़ते हुए अनुमेह ने अपनी बात कही।
मायरा थोड़ी देर ख़ामोशी से अनुमेह को देखती रही। ‘मुझे मत खो देना, वर्ना फिर से एक नया दर्द मिल जाएगा।’ – मायरा ने हंसते हुए अनुमेह को छेड़ा।
‘अच्छा, अगर अभी तुम्हें कोई दर्द दे दूं तो?’ – अनुमेह ने मायरा को कसकर अपनी बाहों में लपेटा। मायरा हल्के दर्द से कराह उठी।
‘तुम बहुत बुरे हो। जाओ….’ – मायरा ने झूठा गुस्सा दिखाते हुए कहा।
‘कहां जाऊं? मैं तो पहले से ही वहां हूं, जहां मैं होना चाहता था।’ – अनुमेह ने प्यार की बरसात सी कर दी।
‘अच्छा सुनो, प्यार क्या है तुम्हारे लिए?’ – अनुमेह ने फिर से सवाल दागा।
‘प्यार, जो मैं तुमसे करती हूं।’ – मायरा ने हंसते हुए लापरवाही से जवाब दिया। ‘तुम्हारे लिए’? – अबकी अनुमेह की बारी थी। अनुमेह ने मायरा को देखते हुए कहा कि ‘आज़ादी ही प्यार है, जहां आप बस बहते हो।’
मायरा प्यार से बस मुस्कुरा के देख रही थी। वो अनुमेह की बात सुनकर एक मुस्कान दी।
‘मेरे ज्ञानी बालक, तुम कितने सवाल पूछते हो ना। तुम्हें क्या पता कि मेरा मुंह कितना दर्द करता है उनके जवाब देते हुए।’ – मायरा ने अनुमेह का मज़ाक उड़ाया।
‘अच्छा, मुंह दर्द करता है, तो लाओ, तुम्हें दर्द से मुक्त कर दूं।’ – कहते हुए अनुमेह ने मायरा के होठों को चूम लिया। मायरा ने खुद को छुड़ाने की नाकामयाब कोशिश की।
दोनों एक दूसरे से लिपटे थे। हां, ठीक वैसे ही, जैसे चंदन के पेड़ से सांप। चंदन के पेड़ को छूने से पहले सांप का सामना करना पड़ता है। मायरा की वैसी ही हिफ़ाज़त अनुमेह करता था। मज़ाल किसी की, जो मायरा को रुला भी सके।
‘तुम पास रहती हो तो सब अच्छा लगता है।’ -अनुमेह का हाथ मायरा की गर्दन से गुज़रता हुआ नीचे जाने लगा। मायरा ने शर्माते हुए चादर को ऊपर खींचा पर अनुमेह के आगे उसकी एक भी ना चल पाई।
‘तुम बहुत बुरे हो। बहुत परेशान करते हो। मुझसे इतना प्यार कैसे? मैं तो तुम जैसा नहीं सोचती।’ – मायरा ने प्यार में मदहोश अनुमेह से सवाल पूछा।
अनुमेह प्यार के चरम पर था। उसने मायरा के अंदर प्रवेश करते हुए कहा – ‘ शादी के 3 साल हो चुके हैं। अब तक तुम्हें नहीं पता चला कि विचारों में मतभेद हो सकते हैं, पर प्यार और ज़िंदगी जीने में नहीं होने चाहिए। इरादा होना चाहिए बस साथ रहने का।’
मायरा के मुंह से ‘आह’ निकली और अनुमेह हांफता हुआ उसके ऊपर लेट गया। ‘और ये जो इरादा है ना साथ रहने का, वो मेरे अंदर तुमको लेकर पूरा है। साथ रहने के लिए जिस चीज़ का मिलना ज़रुरी है, वो हम दोनों की मिलती है। मैंने तुम्हें अभी जो दर्द दिया है, बस वही दर्द देना चाहता हूं, उससे ज़्यादा नहीं, उससे इतर नहीं।’ – अनुमेह ने मायरा को देखकर ऑंख मारी और बाथरूम की तरफ बढ़ गया।
हां, साथ रहने का भी एक भाव है, जैसे दर्द और प्यार का। चाहे किसी मुद्दे पर अनुमेह-मायरा के विचार मिले या नहीं, पर दोनों के साथ रहने के ये भाव मिलते हैं।
मायरा चादर में लिपटी बिस्तर की सिलवटों को देखती रही। वो उठी और चादर की सिलवटों को साफ करने लगी। मायरा को सिलवटें पसंद नहीं थीं, पर बिस्तर की ये सिलवटें उसे भाती थी।
माथे पर शिकन और ज़िंदगी में सिलवटें ना आएं तो प्यार आज़ाद है….मायरा और अनुमेह की तरह…
Beautiful
Wow…its bold and beautiful.
क्या बात है? इतनी पर्सनल सी बातों को बहुत अच्छे से लिखा आपने।
U wrote so beautifully…ur intimate writing is very seductive😉
यही सोच तो रिश्ते को मजबूत बनाती है