ज़रा सा मुस्कुरा लो


मेरी बात मानो और ज़रा सा मुस्कुरा लो

फ़िल्म देखते हुए थाम लो उसके हाथों को। फ़िल्म देखते हुए ही क्यों भला… टहलते हुए, ऑटो में, ओला कैब में, खाने खाते हुए….हर जगह बस हाथ थामे ही रहो। हो सकता है कि तुम्हें सुनने को मिले कि कोई भाग रहा है क्या कहीं जो ऐसे हाथ थाम रखा है, पर अनसुना कर दो उस आवाज़ को और बस हाथ थामे ही रहो। सोचो, अंतिम बार कब ऊंगलियां उलझी थी तुम्हारी? ईयर फोन के तारों को सुलझाने के बारे में ना सोचकर उसके साथ अपनी ऊंगलियां उलझाने के बारे में सोचो।

अब ऐसा भी नहीं कि तुम्हें उलझनें पसंद नहीं। तुम्हें सोच में उलझना भी अच्छा लगता है और उसकी ऊंगलियों से भी, पर जाने क्यों कभी कभी घबराहट होती है। तुम्हें पता है, ज़िंदगी में अगर आपने कुछ खोया होता है तो फिर आप डरते हैं क्योंकि ‘खोना’ आपको बदलता है। भावनाएं भी पहले जैसी नहीं मचलती, तो ठीक है ना…जितनी मचल रही हैं, कम से कम उनको तो पूरा करो।

तुम्हें पता है, कोई छोड़कर जब जाता है, तब दर्द होता है और रोना भी आता है। जब कोई साथ रहकर भी साथ महसूस नहीं होता तब भी ज़िंदगी बेज़ार लगती है। जब कोई प्यार जताकर पीछे हटता है तब भी सब खोता सा महसूस होता है। दर्द को महसूस करना या रोना ग़लत बात नहीं। ज़िंदगी को महसूस करने के लिए सब एहसास को होना ज़रूरी है। कोई रिश्ता दर्द के बिना बनता है क्या? हंसने के लिए रोना ज़रुरी है। दर्द से डरना नहीं है, वो ज़्यादा समय तक ना बना रहे, मन उसमें ना अटके, कोशिश तो वो करनी है।

ज़िंदगी जब तक रहेगी, दर्द मिलता रहेगा, पर उसी दर्द में खुशी के रंग भरने हैं। हाथ पकड़ कर देखो, आधे से अधिक दर्द तो वैसे ही दूर हो जाएगा। ऑंसू निकलने ज़रुरी हैं, पर उसके बाद हंसना उससे भी ज़्यादा ज़रूरी।

जो गया उसको जाने दो। जो है उसको थाम लो। जो रहकर भी मुंह मोड़े बैठा है, तो उसके मुंह की तरफ जाकर बैठ जाओ। जो करना है करो, पर याद रखो, खुश रहना है। दर्द से डरना नहीं है, उसमें अटकने से बचना है।

मेरी बात मानो और ज़रा सा मुस्कुरा लो…

 

2 thoughts on “ज़रा सा मुस्कुरा लो

  1. bilkul theek kha aapne shweta ji , khushi our gam dono jeevan k do pahlu hai. sab kuchh chhodo jara muskra lo.

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