कभी कुछ रोक कर देखा है आपने ज़िंदगी में? कभी कुछ अपने काबू में किया है? अगर हॉं, तो फिर ये भी आपको पता होगा कि दुनिया की सारी चीज़ें रोकी जा सकती हैं, सब पर काबू पाया जा सकता है….सिवाए सपनों के। आप भले ही किसी को सात तालों में बंद कर दें, पर सपने तब भी आज़ाद रहेंगे।
डायरेक्टर अलंकृता श्रीवास्तव ने अपनी फ़िल्म ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ से ये बात बेहद ही बेबाक, बिंदास और बोल्ड अंदाज़ में कह दी है। काफ़ी लम्बे अरसे से बनी हुई थी फ़िल्म, पर वो क्या है ना कि आज़ादी कभी मुफ़्त में तो मिलती नहीं, तो बस अलंकृता ने भी अपने आज़ाद सोच की क़ीमत दी और फ़िल्म इतने वक़्त बाद पर्दे पर आने जा रही है।
कहानी भोपाल की है। एक ही मोहल्ले में रहने वाली 4 औरतों की है, जो अपनी अपनी परिस्थितियों में उलझी हुई हैं, पर ऑंखों में कई सपने लेकर ज़िंदगी बिता रही हैं।
ऊषा (रत्ना पाठक शाह)-
पूरा मोहल्ला ऊषा को ‘बुआ जी’ कहकर बुलाता है। एक अधेड़ उम्र की महिला, जिसके पति की मृत्यु काफी पहले ही हो चुकी है। वो ज़िंदगी के उस मोड़ पर खड़ी है, जहां सेक्स के बारे में सोचना भी पाप माना जाता है। ऊषा को कामुक कहानियों की किताबें बहुत पसंद हैं, जिसे वो छिप छिप कर पढ़ा करती है। उसकी कहानी की किताब की हिरोईन ‘रोज़ी’ एक सूत्रधार का काम करती है। रोज़ी के कैरेक्टर के सहारे सभी की कहानियां आगे बढ़ती हैं। ऊषा के किरदार ने बता दिया कि भले ही उम्र अपने नंबरों में आगे निकल चुकी हो, पर चाहतों में वो अभी भी वो ‘सब कुछ’ चाहती है। फोन पर कामुक बातें करना, अपने ब्लाउज के अंदर हाथ डालकर खुद के उभारों को पकड़ना उसे अच्छा लगता है। समाज के आडंबरों में फंसी ऊषा को अपने बाथरुम का नल खोलकर पानी गिरने की आवाज़ सुनानी पड़ती है, जिससे मादकता में डूबी उसकी ‘आह’ बाहर ना जा सके।
शिरीन (कोंकणा सेन) –
एक मुस्लिम औरत, जिसके 3 बच्चे हैं, जिसका पति असलम (सुशांत सिंह) पहले सऊदी में काम करता था पर अब वापस आ चुका है। वो हर रात को शिरीन के साथ दरिंदे जैसा व्यवहार करता है। शिरीन दिन में छिपकर नौकरी करती है। अपने पति की बेरोज़गारी और दूसरी महिला के साथ संबंध को जानकर भी वो खुलकर ऐतराज़ कर नहीं पाती। बच्चा पैदा करने वाली मशीन बनी शिरीन नौकरी में अपनी खुशी ढूंढती है। ऊषा को स्विमिंग कॉस्ट्यूम खरीदवाने में शिरीन ही उसकी मदद करती है, पर ये पूछे जाने पर कि क्या पति ने ‘नीचे’ कभी प्यार से छुआ है या कभी होठों को चूमा है, शिरीन ऑंसुओं को बहाने के अलावा और कुछ नहीं कर पाती।
लीला (अहाना कुमरा) –
लीला की ज़िंदगी की अपनी ख़्वाहिशें हैं। वो भोपाल की उन तंग गलियों में रहकर ज़िंदगी बीताने में यकीन नहीं करती और ना ही इस बात में कि उसके घरवाले उसकी शादी उसकी मर्ज़ी के बिना करवा दें। वो अपना खुद का ब्यूटी पार्लर चलाती है। उसका अपना प्यार है, जिसके साथ वो दिल्ली जाकर खूब सारा इंजॉय करना चाहती है। गुस्से में आकर अपनी सगाई वाले दिन वो अपने ब्वॉय फ्रेंड के साथ ना केवल सेक्स कर सकती है बल्कि उस समय अपना खुद का वीडियो भी रिकॉर्ड कर सकती है। ज़िंदगी के फ्रस्टेशन को सेक्स में निकालने वाली लड़की है लीला।
रिहाना (प्लाबिता बोर्थाकुर) –
रिहाना के मां बाप दर्जी हैं। कपड़े सिलते हैं। रिहाना का पढाई के लिए कॉलेज में एडमिशन हुआ है, जहां उसे घर की तरह बुर्के में कैद होकर नहीं रहना पड़ता। वो जींस पहन सकती है और इसीलिए जींस बचाओ का नारा भी दे सकती है। घर में जो किसी फंक्शन में भी अपने स्टाइल में डांस नहीं कर सकती, वो अपनी आज़ादी के लिए मॉल में चोरी करने लगती है, छिप कर शराब-सिगरेट पीने लगती है, बार में जाकर जमकर डांस भी करने लगती है। कमरे में ढके बैड ब्वॉयज़ के पोस्टर रखने वाली रिहाना, माइली सायरस में विश्वास करने वाली रिहाना घर से बाहर निकलने पर आज़ादी को अपनी समझ से जीने की कोशिश करती है।
अलंकृता ने बेहद खूबसूरती से इन किरदारों को दिखाया है, उनसे हमारी मुलाक़ात करवाई है। पर्दे के पीछे की कहानी को अंलकृता ने दिखाने की कोशिश की है। रत्ना पाठक, कोंकणा, अहाना और प्लाबिता, सभी ने अपने अपने किरदारों को जिया है। रत्ना पाठक ने स्विमिंग कोच के साथ बात करते हुए जिस तरह से हाव भाव दिए हैं, वो बहुत ही कमाल के हैं। लोगों को लगता है कि 55 की उम्र में कुछ चाहतों को मर जाना चाहिए, पर कोई ये समझने के लिए तैयार नहीं कि उस उम्र में भी शरीर के भीतर एक ‘रोज़ी’ पैदा हो सकती है। हो सकता है कि अब एक अधेड़ उम्र की महिला को देखने के नज़रिए में बदलाव आए। कोंकणा ने चुप रहकर अपनी बॉडी लैंग्वेज और अपनी ऑंखों से बहुत कुछ कहा है। अहाना ने एक बोल्ड लड़की के रोल में अपनी जगह बहुत अच्छी बनाई है। प्लाबिता ने अपने काम से खुद को साबित किया है। लोग इन चारों ही कैरेक्टर से खुद को जुड़ा पाएंगें। अधेड़ उम्र में चाहतों का मचलना हो, हर रात बिस्तर पर पति की हैवानियत को झेलना हो, ज़िंदगी की उलझनों में फंसे रहना हो या फिर बुर्के के अंदर रहकर अपनी आज़ादी को ढूंढना हो….इन चारों किरदारों ने इन सारे ही भावों को बखूबी दिखाया है। इसके अलावा सुशांत सिंह, वैभव तत्तववादी, विक्रांत मेसी और शशांक अरोड़ा का काम भी अच्छा है।
’12 टके ब्याज पर हंसी है उधार की’ और ये वाली हंसी सिर्फ महसूस की जा सकती है। ये ‘नाऊ और नेवर वाले सपने’, ‘प्रेम और हवस वाले सपने’, ‘लिपस्टिक वाले सपने’ हर जगह हैं। इन सपनों ने तो सेंसर बोर्ड को भी हिला कर रख दिया था, पर मैंने पहले भी लिखा है, सपनों को कोई नहीं रोक सकता।
बुर्का एक सोच है, जिसमें दबी हुई है एक औरत। स्वीमिंग पूल में ऊषा को तैरते देखना हो, रिहाना को जींस पहने देखना हो, शिरीन को वैक्स करवाते देखना हो या फिर लीला के बोल्ड अंदाज़ को देखना हो….फ़िल्म देखते हुए ये सब आपको अपनी खुद की आज़ादी लगने लगती है। हो सकता है कि अलंकृता की इस मेहनत के बाद भी बहुत कुछ ना बदले, पर ‘कुछ’ बदलेगा, ये तो पक्का है।
अगर आप समाज की उस तस्वीर को देखना चाहते हैं, जिसे अक्सर अनदेखा किया जाता है, तो इस फ़िल्म को ज़रुर देखिए। एक बेहद ही उम्दा फ़िल्म, जिसे नहीं देखना एक भूल ही होगी…बहुत बड़ी भूल…
इस फ़िल्म को मिलते हैं 4 स्टार्स।
Super se uper wala review Hai…I will definitely go for movie.
bahut hi achhi movie hai
जबरदस्त रिव्यू है…बवाल