‘पता है, कुछ सालों पहले तक यहां कुछ नहीं था। किसानों ने अपनी ज़मीनें बेच दी और गुड़गांव की काया पलट हो गई। अपनी ज़मीनें बेचकर ही तो इनके पास इतने पैसे आए हैं। पढ़े लिखे नहीं होंगे, पर पैसा बोरी भरकर होगा।’
मुझे याद है कुछ साल पहले की ये बात, जब किसी दोस्त ने मुझे गुड़गांव के बारे में बताते हुए ये बात कही थी। शंकर रमन ने अपनी पहली डायरेक्ट की हुई फ़िल्म ‘गुड़गांव’ से ये बात मुझे दिखा भी दी। ‘गुड़गांव’ की तब्दीलियों के वक्त जो कुछ हो रहा था, उसके एक छोटे हिस्से को शंकर रमन ने दिखाया है, एक परिवार की कहानी के ज़रिए।
कहानी केहरी सिंह (पंकज त्रिपाठी) के परिवार की है। कहानी केहरी सिंह के बेटे निक्की (अक्षय ओबरॉय) की अपने पिता से अलग दिलचस्पी की है। उसकी फॉरन रिटर्न बेटी प्रीत (रागिनी खन्ना) की कहानी है, जो अपने पिता को ‘ना’ नहीं कह सकती। कहानी गिटारिस्ट (सुंदर राजन) की है, जो बिना वजह ही एक साज़िश का शिकार होता है। कहानी केहरी सिंह की पत्नी (शालिनी वत्स) की है, जो अपनी नवजात बेटी को दफन करते वक्त कुछ नहीं कर पाती, पर अंत में एक निर्णयात्मक भूमिका निभाती हैं। कहानी चिंटू (आशिष वर्मा) की है, जो बड़े भाई का हर ग़लत चीज़ में साथ देता है पर अपनी बहन से भी बहुत प्यार करता है। कहानी ‘गुड़गांव’ बनने की है…
फ़िल्म के सारे किरदारों ने एक से बढ़कर एक एक्टिंग की है। पंकज अपने रोल में बहुत सही लगे हैं। कम संवादों के साथ पंकज ने अभिनय को एक अलग ही मुकाम पर पहुंचाया है। फ़िल्म में उनकी बर्बरता आपको उनसे नफरत करने पर मजबूर कर देगी और शायद यही उनके अभिनय की सबसे बड़ी कामयाबी है। दिन भर शराब के साथ रहने वाला केहरी सिंह शुरु में अच्छा लगता है अपने बेटी प्रेम की वजह से, पर प्रेम का कारण जानने पर वो अपने प्रति उस नफरत की निगाह को वापस पा लेता है। कभी कभी उसका पश्चाताप अपनी ओर ध्यान खींचता है। नशे की हालत में रहकर शायद वो उन सब परिस्थितयों से मुंह मोड़ने की नाकाम कोशिश कर रहा है, जो आज उसके हाथ में नहीं। पंकज के इस किरदार को लंबा याद रखा जाएगा।
रागिनी खन्ना ने बहुत अच्छा काम किया है। लंबे समय के बाद उनके इस अभिनय को देखने का मौका मिला। रोल हालांकि कम था, पर उसमें भी उन्होंने बहुत मजबूती के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है। बेटे के रोल में अक्षय ओबरॉय का काम उम्दा है। अक्षय ने साबित कर दिया कि सिर्फ एक्सप्रेशन से भी अपने अभिनय का जादू बिखेरा जा सकता है। आशिष वर्मा ने छोटे भाई का किरदार बहुत प्यारे तरीके से निभाया है। थोड़ी मासूमियत, थोड़ी नासमझी और थोड़ा बड़े भाई की छत्र छाया के रौब को आशिष ने बखूबी दिखाया है। आमिर बशीर का काम भी अच्छा है। सुंदर राजन ने भी अपने रोल को जस्टिफाई किया है। श्रीनिवास सुंदरराजन, एना एदॉर और अर्जुन फौजदार का काम भी अच्छा है।
शंकर रमन की तारीफ करनी होगी ‘गुड़गांव’ के लिए। एक शहर को इस तरह से दिखाने का ये तरीका नया और बहुत अलग है। एक परिवार की कहानी से उन्होंने उस परिवेश को बेहद ही रोचक तरीके से दिखाया है, जब यह शहर बस रहा था। प्रीत की किडनैपिंग के बाद से हर किरदार का सच जिस तरह बाहर आता दिखाया गया है, वो इंट्रेस्टिंग है। अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए नैतिकता के हर स्तर से गिरने की कहानी को शंकर ने बहुत ही खूबी से दिखाया है। शंकर खुद एक बेहतरीन सिनेमैटोग्राफर रहे हैं, पर उनकी फ़िल्म में विवेक शाह ने सिनेमैटोग्राफी की है, और कहना ग़लत नहीं होगा कि बेहतरीन की है। कम रोशनी के साथ क्लोज़अप फ्रेम्स कहानी को असरदार ही बनाते हैं।
अक्सर फ़िल्म देखते हुए लोग कहानी को या एक्टिंग को बीच बीच में डिस्कस करने लगते हैं। व्हॉट्स अप और फेसबुक देखने लगते हैं और कुछ महाशय तो फोन पर चिल्ला चिल्ला कर बात करने लगते हैं। अगर आप भी इनमें से कोई भी एक हरकत करते हैं तो ये फ़िल्म देखना आपके लिए बेकार है क्योंकि ‘गुड़गांव’ को देखने के लिए चाहिए एकाग्रता। एक भी सीन चूके तो कहानी समझ नहीं आएगी। मेरा कहा मानिए और ध्यान लगाकर इस फ़िल्म को देखिए क्योंकि फ़िल्म को ना देखना तो सही नहीं होगा।
इस फ़िल्म को मिलते हैं 3 स्टार्स।