मुझे याद है कि जब हम छोटे थे, तो हमें सबसे ज़्यादा अगर किसी दिन का इंतज़ार होता था, तो वो था ‘संडे’। संडे का इंतज़ार आज भी होता है, पर बदलते परिवेश ने उस इंतज़ार के मायने ही बदल दिए हैं। पहले इंतज़ार होता था कि बाहर जाकर खेलना है, मस्ती करनी है। भाई के लिए संडे का मतलब होता था – फुटबॉल या क्रिकेट खेलने जाना। मंडे परेशान करता था और इसीलिए संडे की कीमत बहुत ज़्यादा थी।
क्या आपने कभी संडे की कीमत जानी है? आपके लिए संडे का मतलब पूरे दिन सोना और फ़िल्म देखना है या फिर आपके लिए संडे का मतलब दोस्तों के साथ बाहर जाकर खुली हवा में सांस लेना, मस्ती करना या खुले ग्राउंड में खेलना है? अगर संडे का ये दूसरा मतलब आपके संडे से मैच करता है तो उसे बेहद खूबसूरती के साथ दिखाने के लिए मिलिंद धाइमडे अपनी फ़िल्म ‘तू है मेरा संडे’ ला रहे हैं।
फ़िल्म पांच दोस्तों की कहानी है – अर्जुन आनंद ( बरुण सोब्ती), राशिद शेख़ (अविनाश तिवारी), डॉमी डिसूजा ( विशाल मल्होत्रा), महरनोश ( नकुल भल्ला), जयेश गरोडिया ( जय उपाध्याय)। पांचों दोस्तों ने अपनी अपनी ज़िंदगी में उलझनों को देखा है, उसके साथ जी रहे हैं और हर संडे फुटबॉल खेलकर वो उस ज़िंदगी से बाहर निकलने की कोशिश भी करते हैं। वहां भी उलझनें उनका पीछा नहीं छोड़ती क्योंकि शहरों में आजकल प्लेग्राउंड्स बचे ही कहां हैं। इन्हीं उलझनों के बीच वो अपनी खुशी के रास्ते ढूंढते हैं, ज़िंदगी के मायने बदलते हैं। पूरी कहानी जानने के लिए आपको ये खूबसूरत फ़िल्म देखनी पड़ेगी।
डायरेक्टर मिलिंद धाइमडे ने इस फ़िल्म को बेहद ही सहज और सुंदर तरीके से बनाया है। छोटी छोटी बातों को इतनी खूबसूरती से दिखाया है कि वो आपको अपनी ज़िंदगी की कहानी लगने लगती है। फ़िल्म में जितने भी कैरेक्टर्स हैं, उन सभी का रोल पूरी तरह जस्टीफाई किया गया है, जो ज़्यादा किरदारों वाली फ़िल्म में एक मुश्किल काम है। खुशी के लिए लड़ाई ठीक वैसे ही दिखाई गई है, जैसी हम अपनी निजी ज़िंदगी में खुद के साथ देखते हैं। मंडे जैसी ज़िंदगी में संडे कितना महत्वपूर्ण है और आप उस संडे को किस तरह इंजॉय कर सकते हैं, ये फ़िल्म उसे बखूबी बताती है। फर्स्ट हाफ थोड़ा और कसा जा सकता था, पर आसान सी कहानी को दिखाना ही सबसे मुश्किल काम होता है और इसमें कोई शक नहीं कि मिलन ने ये बहुत अच्छी तरह किया है। ऑडियंस च्वाइस में इंटरनेशनली ये फ़िल्म ‘बेस्ट नरेटिव फीचर’ का अवॉर्ड जीत चुकी है। फ़िल्म का फर्स्ट प्रीमियर ‘बीएफआई लंदन फ़िल्म फेस्टिवल’ में हुआ था, जहां इसे बहुत ही सराहना मिली। फ़िल्म में अंग्रेज़ी डायलॉग्स थोड़े ज़्यादा हैं तो हो सकता है कि सिर्फ हिन्दी समझने वालों को थोड़ी परेशानी हो।
एक्टिंग की बात करुं तो कोई ऐसा किरदार नहीं, जिसके लिए ये कहा जा सके कि उसका काम थोड़ा कम रह गया। अर्जुन के रोल में बरुण अच्छे लगे हैं। उन्होंने खुद को भी फ़िल्म में ‘अच्छा आदमी’ ही कहा है। ‘इस प्यार को क्या नाम दूं’ से फेमस हुए बरुण फ़िल्म में एक अलग ही रोल में दिखते हैं।
राशिद शेख के रोल में अविनाश तिवारी कमाल के लगे हैं। कॉलेज में दिल टूटने के बाद वुमेनाइज़र बने अविनाश की हरकतें लुभाती हैं। प्यार में भले ही वो हार गए हों, पर लड़कियों को पटाने में वो हमेशा ही जीतते हैं। माहौल को हल्का करने का अंदाज़, तरह तरह के मुंह बनाकर हंसाने का उनका अंदाज़ अच्छा लगता है। सोनी पर आए सीरियल ‘युद्ध’ में अमिताभ बच्चन के साथ काम करके उन्होंने अपनी एक्टिंग का लोहा तभी मनवा दिया था और इस फ़िल्म में दर्द को छिपाकर ज़िंदादिली के साथ रहने का अंदाज़ और भी अच्छा लगता है। काफी नेचुरल एक्टिंग रही है अविनाश की।
विशाल मल्होत्रा का काम भी बहुत अच्छा है। क्रिश्चयन लड़के का रोल जमा है उन पर। अपनी मां के साथ लड़ाई करना, म्यूज़िक में इंट्रेस्ट रखना कुछ ऐसी बातें हैं, जिनसे आप भी खुद को जुड़ा पाएंगे। नकुल भल्ला का काम भी बहुत अच्छा है। ऑफिस की फ्रस्टेशन हो या फिर लड़की को अपनी बात ना कहने की परेशानी, नकुल ने उसे अच्छे से दिखाया है। जय उपाध्याय, जो कि उम्र में सबसे बड़े हैं पर दिल से सबसे बच्चे हैं, का काम भी उम्दा है। शहाना गोस्वामी भी अपने रोल में अच्छी लगी हैं। बरुण के साथ उनकी जोड़ी काफी मिसमैच सी लगती है, पर इसीलिए शायद वो स्वाभाविक भी लगती है। रसिका दुग्गल का काम कमाल का है। काफी नेचुरल एक्टिंग है उनकी। रोल कम था, पर उसमें भी उनका जादू चला। इसके अलावा मानवी गगरू, पल्लवी बत्रा, सुभाष आहुजा, शिव सुब्रमण्यम का काम भी बहुत अच्छा है।
फ़िल्म के गाने भी फ़िल्म की तरह बहुत ही खूबसूरत हैं। वैसे तो सारे ही गाने बहुत प्यारे हैं पर ‘ढूंढ लो’ और ‘ये मेरा मन’ दिल को छूते हैं।
ये टिपिकल बॉलीवुड फ़िल्म नहीं है, इसलिए इसमें वैसा मसाला ढूंढने की कोशिश भी मत कीजिएगा और ना ही वैसी कोई उम्मीद लेकर देखिएगा। ये आपकी और मेरी कहानी है, हम सबकी ज़िंदगी को दिखाती फ़िल्म है। मंडे वाली बोरिंग लाइफ में संडे वाली खूबसूरत हंसी को देखने के लिए, ज़िंदगी में खुशियों के तरीके ढूंढने के लिए, सहजता को एक नए नज़रिए से देखने के लिए ये फ़िल्म ज़रुर देखिए। यकीन कीजिए, शुक्रवार को इतना प्यारा संडे पहली बार आया है। ‘डोन्ट मिस इट’।
इस फ़िल्म को मिलते हैं 4 स्टार्स।