बदल रहा है मौसम का मिज़ाज़, हो रही कई ज़िंदगियां ख़ाक
बदलते मौसम और उसके असर को डायरेक्टर नील माधव पांडा ने ‘कड़वी हवा’ के रुप में बहुत ही सही तरीके से दिखाया है। एक ऐसी कड़वी सच्चाई को हम सबके सामने प्रस्तुत किया है, जिसे देखकर कई दिनों तक दिमाग में कई सारे सवाल पैदा होंगे।
कहानी बुंदेलखंड के एक ऐसे इलाके की है, जहां सूखे की वजह से किसान परेशान हैं। कई किसान अपने खेत खो चुके हैं, बैंक के लोन से दबे पड़े हैं और परेशान होकर आत्महत्या कर रहे हैं। उसी गांव में एक अंधा बूढ़ा बाप हेदु ( संजय मिश्रा) अपने बेटे मुकुंद (भूपेश सिंह) बहु पार्वती (तिलोत्तम् शोम) और दो पोतियां पीहू और कूहू भी साथ रहते हैं। हेदु को अपने बेटे मुकुंद की चिंता है क्योंकि उसने भी बैंक से लोन लिया था। हेदु बैंक के वसूली अधिकारी गुनु बाबू (रणवीर शौरी) से बात करता है। गुनु ओडिशा का रहने वाला है और वो चाहता है कि जल्दी ही उसके बीवी बच्चे उसके पास इस गांव आ जाए। हेदु जब गुनु से मिलता है तो दोनों में एक डील होती है। गुनु क्या है वो डील, क्या होगा इस परेशानी का अंत, इसके लिए ये फ़िल्म देखिए।
कहना पड़ेगा कि नील माधव पांडा ने इस फ़िल्म में मौजूदा हालात की सच्चाई को इतनी बखूबी पेश किया है कि फ़िल्म के अंत तक हॉल के साथ साथ आप अपने भीतर की ख़ामोशी को भी महसूस कर पाएंगे। एक ऐसे गुबार का एहसास होता है, जिसे कहां निकाला जाए, वो जगह समझ नहीं आती। फ़िल्म सच्ची घटना पर आधारित है, जो पूरी वास्तविकता के साथ ही लिखी हुई है। पिता पुत्र के रिश्ते को, किसानों की मजबूरी को, बेबसी और लाचारी को बहुत अच्छे से उभारा गया है और इसमें बेहतरीन सिनेमेटोग्राफी का भी बहुत बड़ा रोल है। मौसम के बदलाव को लेकर ऐसी कहानी आज से पहले शायद कभी नहीं बनी।
संजय मिश्रा की एक्टिंग की जितनी तारीफ की जाए, वो कम है। एक अंधे लाचार बाप के रुप में वो जमे हैं। अपने बेटे के लिए कुछ भी कर गुज़रने का जज़्बा देखते ही बनता है। संजय का कैरेक्टर ऐसा है, जिसे भूलना आसान नहीं होगा। नेशनल अवॉर्ड के हक़दार हैं वो इस फ़िल्म के लिए। रणवीर शौरी का काम भी बहुत अच्छा है। उनके कैरेक्टर में अलग अलग शेड्स डाले गए हैं। लोन वसूली अधिकारी के रुप में जहां उनके ऊपर गुस्सा आता है तो वही दूसरी तरफ परिवार को लेकर उनकी बेबसी के ऊपर तरस। तिलोत्तमा, भूपेश और बाकी किरदारों का काम भी अच्छा है।
फ़िल्म का म्यूज़िक कहानी को सपोर्ट करता है। फ़िल्म के अंत में गुलज़ार साहब की पंक्तियां इसमें और जान डाल देती हैं। फ़िल्म में कोई मसाला नहीं है, पर वास्तविकता पूरी है। इस फ़िल्म को देखना एक ज़रुरत है, जिसे हम में से कोई भी टाल नहीं सकता। फ़िल्म हमें झकझोर कर रख देगी क्योंकि सच तो यही है कि पर्यावरण को बचाने की जिम्मेदारी हमारी ही है। मौसम अब चार नहीं, बस दो रह गए हैं, इस कड़वी सच्चाई को जानने के लिए ‘कड़वी हवा’ ज़रुर देखिए।
इस फ़िल्म को मिलते हैं 4 स्टार्स।