‘मुक्काबाज़’ रिव्यू


अनुराग कश्यप एक अच्छे डायरेक्टर की ज़िम्मेदारी को निभाते हुए ‘मुक्काबाज़’ के साथ हाज़िर हैं। यकीं कीजिए, अनुराग का सिग्नेचर स्टाइल यानि की गालियां इस फ़िल्म से नदारद हैं। मिडिल क्लास फैमिली, उसमें जुनून से भरा हुआ जवान लड़का, प्यार में पड़ी एक गूंगी निडर लड़की, शहर-समाज-देश की समस्याएं…सब कुछ है इस फ़िल्म में।

फ़िल्म के हीरो हैं विनीत कुमार सिंह और फ़िल्म की कहानी भी उन्होंने ही लिखी है। चार साल पहले लिखी इस कहानी को बड़े पर्दे पर आने में इतना वक़्त ही इसलिए लगा, क्योंकि विनीत लीड रोल करना चाहते थे। देर से ही सही, अनुराग कश्यप इसके लिए तैयार हुए और विनीत से काफी मेहनत करवाने के बाद उनको श्रवण बनाकर रिंग में उतार दिया।

कहानी बरेली के श्रवण (विनीत कुमार सिंह) की है, जिसको मुक्केबाज़ी में रुचि है, पर वो क्या है ना कि छोटे शहरों में बड़े सपने देखने की कीमत अदा करनी होती है। कभी अपने ‘गुरू’ के तलवे चाटने होते हैं, कभी मीट के लिए प्याज़-लहसुन काटना पड़ता है, कभी तेल मालिश करनी होती है तो कभी पैर दबाना पड़ता है। श्रवण भी ये सब कर रहा होता है पर तभी कम्बख़्त को सुनयना मिश्रा (ज़ोया हुसैन) से प्यार हो जाता है, जो श्रवण के ‘गुरू’ भगवान दास मिश्रा (जिमी शेरगिल) की भतीजी है। भगवान दास को ब्राह्मण होने का गुरुर है। श्रवण को अपने प्यार के सामने किसी की मालिश करना पसंद नहीं आता और वो इंकार करने के साथ भगवानदास को एक मुक्का भी दे मारता है। भगवानदास को बरेली के सबसे अच्छे मुक्केबाज़ का ये प्रदर्शन पसंद नहीं आता और वो वादा करता है कि श्रवण को खेलने नहीं देगा। खेल और प्यार की ताकत इस कहानी को लेकर कहां जाती है, ये जानने के लिए फ़िल्म देखना ही सही होगा।

अनुराग कश्यप के पास जब विनीत की कहानी गई, तो उन्होंने विनीत के सामने बॉक्सर बनने की शर्त रख दी और विनीत ने ‘कुबूल है’ कहते हुए पटियाला में निखार लिया अपने आप को। फ़िल्म में विनीत की मेहनत साफ दिखती है और कहानी के लीड रोल को निभाने की तीव्र इच्छा भी। समाज के चक्रव्यूह में फंसकर प्यार में तड़पता खिलाड़ी, जो परिवार में अपने बाप के सवालों से परेशान है, जो ‘अनाप शनाप’ प्यार को पाना चाहता है, जो शादी के बाद नौकरी, खेल की प्रैक्टिस, बीवी की साइन लैंग्वेज और भगवानदास की राजनीति में उलझा पड़ा है- इन सब में विनीत रिसर्च करने वाले एक्टर लगे हैं, जिनकी मेहनत और काबीलियत पर चर्चा होनी चाहिए। बॉक्सिंग रिंग में विनीत ने रियल लाइफ़ के बॉक्सर्स के साथ शूट किया है, जो देखने में भी रियल लगता है।

ज़ोया हुसैन की ये पहली फ़ीचर फ़िल्म है। फ़िल्म में वो गूंगी हैं इसलिए उनका कोई डायलॉग नहीं है, पर चेहरे के एक्सप्रेशन से वो अपनी काबीलियत साबित करती हैं। भगवानदास के सामने दबंग बनकर खड़े रहने की हिम्मत सुनयना ने बखूबी दिखाई है।

जिमी शेरगिल की एक्टिंग को लेकर कोई शक नहीं। भगवानदास के रोल में वो इतने जमे हैं कि आप उनसे नफ़रत करने लगेंगे और वही उनकी जीत होगी। कोच के रोल में रवि किशन का काम भी अच्छा है।

अनुराग कश्यप की ये बेहतरीन फ़िल्म है। जातिवाद और गुडांराज की घटिया सच्चाई को अनुराग ने वास्तविकता के धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया है। कश्यप दादरी हत्याकांड, गौ हत्या के नाम पर गुंडागर्दी, राजनीति में फंसे खिलाड़ी, स्पोर्ट्स कोटे में मिली नौकरी की परेशानी…ऐसे कई मुद्दे हैं, जिन्हें अनुराग ने दिखाया है। साथ ही साथ एक मिडिल क्लास की मानसिकता को भी अनुराग ने दिखाया है, जहां पैरेंट्स के लिए बच्चे की मार्क्स शीट ही सबसे ज़्यादा अहमियत रखती है। जहां बेटा इस बात से परेशान रहता है कि जब उसके मां-बाप एवरेज हैं, तो वो उससे तोप बनने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? कहानी बहुत ही रियल सी लगती है। सेकेंड हाफ थोड़ा खिंचा हुआ लगता है पर बोरियत नहीं होती।

फ़िल्म का म्यूज़िक इसकी जान है। ‘मुश्किल है अपना मेल प्रिये’, ‘बहुत हुआ सम्मान’ जैसे गाने भी मज़ेदार लगते हैं तो नवाज़ पर फ़िल्माया सरप्राइज़ आइटम सॉन्ग भी मस्त लगता है सुनने में।

अगर आप आज तक अनुराग कश्यप की किसी भी फ़िल्म को पूरे परिवार के साथ बैठकर नहीं देख पाए हैं, तो इस बार अनुराग ने ये मौका आपको दिया है। विनीत की बेमिसाल एक्टिंग और मेहनत को देखने के लिए ये फ़िल्म एक बार देखनी तो ज़रुर बनती है।

इस फ़िल्म को मिलते हैं 3.5 स्टार्स।

 

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