‘मुल्क’ फ़िल्म रिव्यू


हर मुस्लिम आतंकवादी नहीं होता और किसी भी मुल्क को ‘वो’ और ‘हम’ में नहीं बॉंट सकते। ये एक ऐसी सोच है, जिसे शायद जाने अनजाने मैंने भी कई बार महसूस किया, हम सबने किया होगा पर कुछ डर और पूर्वाग्रह में जकड़ा ये मन अपनी ऑंखें बंद किए बैठा रहता है। इस्लाम को लेकर लोगों के मन में जो डर का फोबिया है, ‘मुल्क’ उसका जवाब है, शायद हल भी है…

कहानी बनारस के एक मुस्लिम परिवार की है। परिवार के सबसे बड़े मुराद अली मोहम्मद (ऋषि कपूर) फेमस वकील हैं, जो अपनी बीवी (नीना गुप्ता), अपने छोटे भाई बिलाल (मनोज पाहवा), उसकी बीवी तबस्सुम (प्राची पंड्या), बेटी आयत और बेटे शाहिद (प्रतीक बब्बर) के साथ रहते हैं। मुराद अली की बहु आरती (तापसी पन्नू) भी लंदन से अपने ससुराल पहुंचती है। मुराद अली के घर के आस पास कई हिन्दु परिवार में भी रहते हैं और सबके बीच में काफी स्नेह है। अचानक होता है एक हादसा, जिसकी लपेट में आता है पूरा परिवार। समाज किस तरह इस मुस्लिम परिवार के साथ पेश आता है, ये जानने के लिए फ़िल्म ज़रूर देखिए।

ऋषि कपूर ने एक्टिंग से कभी ब्रेक नहीं लिया, पर फिर भी सुनती हूं कि लोग इसे उनकी दूसरी पारी कहते हैं। अगर लोगों के शब्दों में इसे उनकी दूसरी पारी भी कही जाए तो उन्होंने फिर से साबित कर दिया है कि चाहे जितना भी मुश्किल रोल हो, चाहे उसमें जितने भी चैलेंज हो, वो निभाने के लिए तैयार हैं। बड़े भाई के रुप में देखें, पति के रुप में देखें या फिर एक पड़ोसी के रुप में, वो हर रुप में जमे हैं। कोर्ट रूम में अपने डायलॉग्स वो इतनी शिद्दत के साथ बोलते हैं कि उनकी बातों का असर आपको अंदर तक महसूस होता है।
‘पिंक’ फ़िल्म के बाद तापसी लाइम लाइट में आ चुकी हैं पूरी तरह। तापसी इस फ़िल्म में भी मुसलमानों को लेकर बनी विचारधारा को तोड़ती नज़र आती हैं। पैनेपन के साथ जब वो संवाद बोलती हैं तो उनका टैलेंट अपने आप समझ में आ जाता है।
मनोज पाहवा का काम भी बहुत अच्छा है। उनकी लाचारी महसूस होती है। रजत कपूर ने भी पुलिस अफसर दानिश जावेद के रोल में अपने किरदार को बखूबी निभाया है। नीना गुप्ता, प्राची पंड्या, प्रतीक बब्बर का काम भी अच्छा है। आशुतोष राणा ने भी सरकारी वकील के रोल में अच्छा काम किया और आम लोगों की सोच को प्रस्तुत किया। जज के रोल में कुमुद मिश्रा का काम कमाल का है। अंत में उनके बोले संवाद समाज की सोच के हर पहलू के नज़रिए को दिखाते हैं।

अनुभव सिन्हा ‘मुल्क’ के ज़रिए उन तमाम सोच पर वो पाबंदी लगा रहे हैं, जो एक मुस्लिम की दाढ़ी और ओसामा बिन लादेन की दाढ़ी में कुछ भी अंतर महसूस नहीं कर पाते। इस एक फ़िल्म के ज़रिए अनुभव सिन्हा वहां पहुंच गए हैं, जहां पहुंचने में डायरेक्टर्स को ज़माने लग जाते हैं। एक बहुत ही ज़रूरी मैसेज को, वो इतने खूबसूरत तरीके से सबके सामने ना केवल लेकर आए हैं, बल्कि बहुत ही सहजता के साथ समझाया है। मैं उनकी पहले की फ़िल्मों को दिमाग में रखकर ये फ़िल्म देखने गई थी, पर जैसे जैसे फ़िल्म देखती गई, मन में अनुभव सिन्हा के लिए एक अलग ही जगह बनती गई। कसी हुई कहानी, गंभीर मुद्दे, परिपक्व डायरेक्शन से ‘मुल्क’ बेहद ही बेहतरीन फ़िल्म बन गई।एक सेकेंड के लिए भी फ़िल्म बोर नहीं करती और इस बात को इस तरीके से भी समझा जा सकता है कि हॉल में सबने तल्लीनता के साथ तो ये फ़िल्म देखी ही, लोग ताली बजाने से भी नहीं चूके। कोर्ट रूम ड्रामा बहुत रोचक तरीके से दिखाया गया है। ऐसा लगता है जैसे अनुभव ने सबके डर और सोच को पढ़ लिया है और उसे कहानी बना दी है। जेहाद का मतलब समझा दिया है, विभाजन के समय पर हिन्दुस्तान में रहने वाले मुसलमान की सोच बता दी है, परिवार में किसी एक शख़्स के आतंकवादी निकलने पर पूरे परिवार को किन तकलीफों का सामना करना पड़ता है, उस सच्चाई और दर्द को बता दिया है। अगर ये कहा जाए कि ‘मुल्क’ आज के समय की सबसे ज़रूरी फ़िल्म है, तो ये कहना ग़लत नहीं होगा।

कुछ सोच से निकलना बहुत ज़रूरी है। नज़रों को एक नया नज़रिया देना बहुत ज़रूरी है। ‘मुल्क’ यही काम करती है।

इस फ़िल्म को मिलते हैं 3.5 स्टार्स।

 

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