1980 में एक फिल्म आई थी – ‘अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है?’ सईद मिर्ज़ा डायरेक्टेड इस फिल्म में नसीरूद्दीन शाह और शबाना आज़मी लीड रोल में थे। मिडिल क्लास आदमी की कहानी थी, जिसे बहुत गुस्सा आता था। अब एक बार फिर से इसी नाम की फ़िल्म वापस आई है, जिसे डायरेक्ट किया है सौमित्र रानाडे ने। फिल्म की कहानी अलग है पर कॉन्सेप्ट और एक्टर का नाम वही है।
कहानी एक मिडिल क्लास आदमी अल्बर्ट पिंटो (मानव कौल) की है। शादी नहीं हुई है अलबर्ट की, पर एक स्टेला (नंदिता दास) नाम की गर्लफ्रेंड है। अचानक ही एक दिन अलबर्ट गायब हो जाता है। घरवाले गुमशुदगी का मामला भी दर्ज़ करवाते हैं। अलबर्ट की कहानी उसके मुंबई से गोवा ट्रिप पर पता चलती है, जो वो नायर (सौरभ शुक्ला) के साथ कर रहा होता है। कहानी कुछ यूं होती है कि अलबर्ट पिंटो के पिता एक ईमानदार कर्मचारी थे, पर बेईमानी का आरोप लगाकर उन्हें सस्पेंड कर दिया जाता है। वो इस बात को सह नहीं पाते और ख़ुदकुशी कर लेते हैं। अलबर्ट इस बात को सह नहीं पाता और निकल जाता है घर से। उसे अपने मिडिल क्लास होने की वजह से चिढ़ है। अलबर्ट के हिसाब से इस दुनिया में 3 तरह के लोग होते हैं। पहले जो दारू पीकर देश चलाते हैं, दूसरे हैं सड़क पर पड़े कुत्ते, जिन्हें पहले वाले गाड़ी चढ़ाकर मार देते हैं और तीसरे हैं कौव्वे, जो सब बस देखते रहते हैं। अलबर्ट को लगता है कि वो भी कौव्वा ही है, जो अब तक सब बस देख ही रहा है। उसका गुस्सा जब बहुत बढ़ जाता है, तो वो निकल पड़ता है एक सफर पर।
कहानी अलबर्ट और नायर की बातचीत में आगे बढ़ती है। वो दो हिस्सों में चलती है, वर्तमान और अतीत में। फ्लैशबैक में अलबर्ट पिंटो की ज़िंदगी की कहानी पता चलती है। गरीब लोगों को खुश देखकर उसे हैरानी होती है। अलबर्ट को लगता है कि देश जल रहा है और इस जलते देश में वो सपने नहीं देख सकता। सौमित्र रानाडे ने एक मिडिल क्लास आदमी के फ्रस्टेशन को बखूबी दिखाया है, जो ईमानदारी से काम करता है, टैक्स देता है पर फिर भी परेशान है। कहानी में कहीं ना कहीं हम ख़ुद को देखने लगते हैं। हो सकता है कि उसकी हरकतों से हम सहमत ना हों, पर उसकी बातों से, उसकी सोच से हम असहमत भी नहीं होंगे। डायलॉग्स बहुत ही नैचुरल हैं, इसलिए आप कनेक्टेड फील करते हैं। जैसे हम दोस्त आपस में बात करते हैं, वैसे ही आम बोल चाल की भाषा को ही इसमें डाला गया है। नायर का एक डायलॉग-‘ट्राई किया है कभी?’ एक साथ बहुत सारे मुद्दों को उठाता है। वैल, परेशानी आपको ये पास्ट प्रेजेंट के चक्कर में आ सकती है। शायद ये एक वजह हो सकती है कि लोगों को दिमाग लगाना पड़े और कईयों को ये पसंद ना आए। जहां हल्की सी भी कहानी भटकती है, वो तुरंत पकड़ में आ जाती है, पर कहानी आपको पकाऊ नहीं लगेगी।
फ़िल्म में 3 किरदार लीड रोल में हैं – मानव कौल, नंदिता दास और सौरभ शुक्ला और इन तीनों की ही एक्टिंग के बारे में बोलना बेमानी है। मानव कौल ने फ्रस्टेटेड आदमी का रोल निभाया है, जिसके अंदर गुस्सा है। उनकी एक्टिंग का ही ये कमाल है कि आप भी उस गुस्से को महसूस करने लगते हैं। बहुत ही रियल एक्टिंग की है उन्होंने। फ़िल्म देखते हुए मन में ये ख़्याल भी बहुत बार आता है कि मानव कौल को ज़्यादा फ़िल्में मिलनी चाहिए, जिससे उनके अभिनय को बार बार देखने का मौका मिले। नंदिता दास 3-4 अलग कैरेक्टर्स में नज़र आई हैं और एफर्टलेस एक्टिंग की वजह से हर रोल में अच्छी लगी हैं। उनके होने मात्र से ही फ़िल्म कुछ स्पेशल हो जाती है। सौरभ शुक्ला बने हैं ड्राइवर और वो अपने रोल में पूरे फिट बैठे हैं। देखकर लगता है कि उन्हें महारत हासिल है ऐसे रोल करने में।
अगर आप एक्सपेरिमेंटल सिनेमा के लिए तैयार हैं, पॉलीटिकल बेस्ड कहानियाँ पसंद आती हैं, तो ये फ़िल्म आप देख सकते हैं। मानव कौल, सौरभ शुक्ला और नंदिता दास की बेजोड़ एक्टिंग के लिए ये फ़िल्म देखी जा सकती है। पर अगर दिमाग लगाना पसंद नहीं, तो फिर दूसरे ऑप्शन्स देखिए।