सफ़र की बात


नींद नहीं आई तो कमरे की बालकनी में चली आई। चारों तरफ सन्नाटा पसरा था। शहर जगमगाता सा दिख रहा था। घरों की लाइट बंद ही होगी, पर अंधियारी रात में भी स्ट्रीट लाइट्स ने शहर में रोशनी बनाए रखी थी। रात गहरी थी, हर कोई सो रहा था….मेरे दिल को छोड़कर…हल्की ठंड लगी, मैंने शॉल को फिर से कसकर लपेटा और ठंडी सॉंस छोड़ती हुई कुर्सी पर बैठ गई।

मुझे पहाड़ों पर आना हमेशा अच्छा लगता था। खुद को खो देती थी मैं इनकी गहराई में। खुद को खोना मुझे हमेशा ही भाता था क्योंकि उसके बाद खुद को ढूंढने का मज़ा मिलता था। मैं ऐसी क्यूं थी, या ऐसी कैसे बन गई, कुछ याद नहीं पर मुझे ये बावलापन भाता था। ऐसे सफर मुझे अपनी तरफ खींचते थे, जिनकी मंज़िल का पता ना हो।

इस बार भी मैं ऐसे ही सफर पर निकली थी। बस में बैठी थी और नींद आ गई। आँख खुली तो बस को रूका हुआ पाया। बस, कंधे पर बैग टांग कर उसी शहर में रुकने का फैसला कर लिया। जब आप अकेले सफर पर निकलते हैं तो आस-पास की चीज़ों को ऑब्ज़र्व तो करते ही हैं, साथ ही साथ खुद के मन को टटोलते भी हैं। मैं भी बस वही कर रही थी। अपनी जगती आँखों के साथ मैं इस सोते शहर को देख रही थी। शहर की रोशनी कहीं ना कहीं मेरे मन को रोशन कर रही थी। मैंने अपने अंदर कुछ जगमगाहट को महसूस किया। शायद इसकी वजह मेरी सोच भी हो सकती है। ये बात इसलिए भी कह रही हूं कि इसे नोटिस किया है मैंने। दिमाग का उलझना कई बार मुझे सुकून भी देता था और कई बार सर दर्द भी। कई बार मुझे मेरी बेचैनी समझ में आती थी और कई बार मैं इसके कारण को समझ ही नहीं पाती थी। सच कहूं तो शायद समझना ही नहीं चाहती थी। पहाड़ों के बीच जाकर खुली वादियों में चीखो तो खुद को खुद की आवाज़ सुनाई देती है। कभी कभी लगता है कि ज़िंदगी ही पहाड़ जैसी हो गई है, जहाँ खुद की आवाज़ ही आपस में टकराती है…

जब बस से उतर कर बस स्टैंड से बाहर आ रही थी तो आँखें ज़िंदगी के अलग अलग नज़ारों को देख रही थीं। बुक स्टॉल पर बैठे वो अंकल एक किताब को पढ़ रहे थे, जैसे उन्हें पता हो कि शायद अब लोगों की रूचि इन पन्नों को पलटने में नहीं है, तो कम से कम दुकान के मालिक होने के नाते वही पलट लें। चाय की टपरी पर बैठा वो लड़का बिना किसी ग्राहक के चाय उबाले जा रहा था कि शायद उसकी खुशबू लोगों को खींच लाने में सफल हो। शहर झाड़ू से साफ हो रहा था। कुछ साइकिल की घंटियाँ कानों में बज रही थीं। कुछ दुकानों पर शटर गिरे पड़े थे, कुछ खुलने की तैयारी में। कच्ची नींद होने के बावजूद कुत्ते सोए पड़े थे। पूरे दिन भौंकने की वजह से वो भी अभी तक नींद की आगोश में थे।

पिछले साल भी आई थी पहाड़ों के बीच रहने। बस चले तो शायद इधर कई महीनों के लिए बस जाऊं। एक अलग सा सुकून मिलता है यहाँ, जो मैट्रो सीटिज़ में कभी हासिल नहीं हो सकता। हंसती भी हूँ मैं ये सोचकर कि पहाड़ों से सुकून लेकर जाती हूँ और अपने शहर में जाकर उसे गँवा देती हूँ, पर अब ये ऐसा ही है। मुझे पता है कि ये पहाड़ कभी सुकून देना बंद नहीं करेंगे। इनके पास सुकून का खजाना है।

सूरज उगने वाला है। इस लालिमा से मैं उसका आगमन देख सकती हूँ। शहर जगने वाला है, अब मुझे सो जाना चाहिए…

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