सटीक निशाना है ‘सांड की ऑंख’


तन बुड्ढा होये है, मन बुड्ढा नहीं होता, इस बात की मिसाल हैं यूपी के बागपत के जोहरी गॉंव की शूटर दादियॉं- चन्द्रो और प्रकाशी तोमर। भारत की सबसे बुजुर्ग शार्पशूटर्स चंद्रो तोमर और प्रकाशी तोमर पर बायोपिक बनाई है तुषार हीरानंदानी ने, जिसमें दादियों का किरदार निभाया है भूमि पेडनेकर और तापसी पन्नू ने।

कहानी में चंद्रो और प्रकाशी तोमर की पूरी ज़िंदगी दिखा दी गई है कि किस तरह घर का काम करने, खेत जोतने, बच्चा पैदा करने और उन्हें पालने में उनकी लगभग पूरी ज़िंदगी ही निकल गई। बड़े घूंघट में वो घर से खेत और खेत से घर का रास्ता ही पार कर सकती हैं। उनके पतियों का काम बस इतना है कि वो दिन भर बैठकर हुक्का पीते हैं और बड़ी बड़ी बातें करते हैं। प्रकाशी तोमर ने सिलाई मशीन का काम भी शुरू करने का सोचा पर उस सपने को घर के आदमियों ने कुचल दिया। पर वो कहते हैं ना कि सपने देखने की कोई उम्र नहीं होती, तो बस, तोमर दादियों को भी पता चलता है कि निशाना लगाने में वो माहिर हैं और वो उस सपने को पूरा करना चाहती हैं, शूटिंग कॉम्पिटिशन में हिस्सा लेकर। ट्रेनिंग लेना, टूर्नामेंट खेलना, उसे जीतना, देश भर में मिसाल कायम करना, दूसरों को भी हिम्मत देना- यह सब कुछ होता है, पर कैसे होता है, यही बात फ़िल्म में पूरी खूबसूरती के साथ दिखाई गई है।

तुषार हीरानंदानी के डायरेक्शन की तारीफ करनी होगी। शूटर दादियों की कहानी लगभग हम सबको पता है। न्यूज़ में या सत्यमेव जयते शो में हमने इनके बारे में काफी कुछ जाना, पर फ़िल्म देखते हुए आप इनकी कहानी जीने लगते हैं। आप चाहे कितनी भी कंफर्टेबल लाइफ में क्यों ना हों, आप खुद को इनसे पूरी तरह जुड़ा पाएंगे। उनका दर्द, उनकी बेबसी, उनकी हिम्मत आपको पूरी तरह महसूस होगी, जैसे वो सब कुछ आपका अपना हो। एक सीन में जब प्रकाशी तोमर का निशाना ठीक ‘Bull’s Eye’ पर लगता है तो कोच पूछता है कि तुम दोनों दादियॉं खाती क्या हो तो प्रकाशी का जवाब होता है -‘गाली’। ये सीन आपको अंदर तक झकझोर देता है। घर का मुखिया बड़ा बेटा ही होगा और सब उसकी सुनेंगे, समाज की इस सत्तात्मक खामियों से लेकर, वुमेन एंपावरमेंट तक, हर पहलू को तुषार ने बहुत ही अच्छे से दिखाया है। डायलॉग्स लाजवाब हैं। आपको हंसाते भी हैं और इमोशनल भी करते हैं। कुछ कुछ सीन्स में आप अटक जाते हैं। जब पोती ये कहती है कि मुझसे शूटिंग नहीं होगी, तब दादी का ये कहना कि मैं रोटी पाऊं, तू सीख गई, मैं झाड़ू लगाऊं, तू सीख गई, तो मैं निशाना लगाऊंगी, तो तू वो भी सीख जाएगी- गॉंव में मॉं-बेटी के रिश्ते को भी बताता है। महारानी की जीत पर महाराज को खुश होता देख दादियों का ये कहना कि कोई अपनी औरत की तरक्की पर इतना भी खुश हो सकता है, आज भी पिछड़े समाज में महिलाओं की हालत को बयॉं करता है। एक सीन में कपड़े सुखाते हुए पैंट के बीच में तोमर दादियों का चेहरा बहुत कुछ बता जाता है, तो वही कंडोम के ऐड पर गॉंव के पुरूषों का रिएक्शन उनकी सोच को दिखाता है। तोमर दादियों का अपनी किसी विश के लिए साड़ी में गॉंठ लगाना भी उनके उम्मीद और भरोसे को दिखाता है। महारानी की पार्टी में लाइट को छूने वाला सीन हो या इंग्लिश बोलने वाला सीन, आपको हंसाएगा। एक सीन में प्रकाशी दादी का महारानी को देखकर ये पूछना कि ऐसी औरत भी होवे है और चंद्रो दादी का ये कहना कि होवे है, तभी तो दिखे है, बहुत कुछ समझा जाता है। कैमरा वर्क भी बहुत अच्छा है। बैकग्राउंड स्कोर भी कहानी को पूरी तरह सपोर्ट करता है। गाने भी बहुत मस्त हैं। ‘वुमनिया’ और ‘उड़ता तीतर’ में डांस करने का मन करता है।

फ़िल्म का जो सबसे सॉलिड पार्ट है, वो है एक्टिंग। चंद्रो तोमर के रोल में भूमि पेडनेकर ने कमाल कर दिया है। वो किरदार में पूरी तरह घुस चुकी हैं। हंसना, चलना, बोलना, छोटे छोटे मूवमेंट्स में भी उन्होंने हर बारीकी का ध्यान रखा है। प्रकाशी तोमर के रोल में तापसी पन्नू भी बहुत अच्छी लगी हैं, पर कहीं ना कहीं वो भूमि से कम लगी हैं। किरदार की उम्र और तापसी के एक्सप्रेशन्स कहीं कहीं मैच नहीं कर रहे, पर कहानी की मजबूती की वजह से ये बहुत नहीं खटकता। थोड़ा बहुत जो खटक सकता है, वो है मेकअप। कोच के रोल में विनीत सिंह ने भी बहुतअच्छा काम किया है। उनकी मेहनत का ही नतीजा है कि हर किरदार में वो पूरी तरह फिट बैठते हैं। सरपंच सतपाल सिंह के रोल में ‘ये तो होना ही था’ कहते हुए प्रकाश झा का काम भी अच्छा है।

अच्छी फ़िल्म है, ज़रूरी फ़िल्म है, देख लीजिए। देखकर शायद ये बात समझ में आ जाए कि सपने देखने की कोई उम्र नहीं होती क्योंकि तन बुड्ढा होए है, मन बुड्ढा नहीं होता।

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