एसिड अटैक के दर्द को दिखाती ‘छपाक’


कुछ दर्द ऐसे होते हैं, जिनके साथ जीना बहुत मुश्किल होता है। इतना मुश्किल, जिसे हम और आप नहीं समझ सकते हैं। ऐसी ही एक तकलीफ है ‘एसिड अटैक’ और फिर उसके साथ ज़िंदगी गुज़ारना। इस दर्द से जाने कितनी ही लड़कियॉं गुज़र रही हैं और उनमें से ही एक हैं लक्ष्मी अग्रवाल, जिनकी कहानी को मेघना गुलज़ार ने दिखाया है ‘छपाक’ में।

कहानी की शुरुआत 2012 में हुए निर्भया केस के प्रोटेस्ट से शुरू होती है। भागदौड़ के बीच कैमरे के सामने एक बुढ़ा आदमी एक पासपोर्ट साइज़ फोटो लेकर आता है और जब कैमरे की नज़र उस पर पड़ती है तो नज़र आता है एक चेहरा, जो एसिड अटैक का शिकार हुआ है। यही से अवंतिका चौहान और मेघना गुलज़ार ने उस दर्द को उठाया है, जो आपका चेहरा, आपकी पहचान, सब छीन लेता है। लक्ष्मी के किरदार को इस फ़िल्म में मालती नाम दिया गया है। मालती के साथ ही कुछ और केस भी दिखाए गए हैं। मालती के एसिड अटैक वाले दिन को अलग तरीके से दो बार दिखाया है। अटैक करने वाला बशीर खान बिना किसी अपराधबोध के बेल पर रिहा होकर अपनी ज़िंदगी जीता है और दूसरी तरफ मालती अपने लिए न्याय की लड़ाई लड़ती रहती है। मालती का साथ देती हैं लॉयर अर्चना और एनजीओ चलाने वाले आलोक। कहानी कोर्ट रूम के साथ साथ मालती और आलोक के प्यार को भी दिखाती है।

मेघना गुलज़ार ने इस सच्ची घटना को पूरी ईमानदारी से दिखाने की कोशिश की है। कहीं कहीं कुछ चीज़ें अखरती भी हैं। स्क्रीनप्ले थोड़ा और मजबूत करने की ज़रूरत महसूस होती है। एसिड अटैक वाला दिन भी बहुत इम्पैक्टफुल तरीके से सामने नहीं आता। मालती की कहानी डराती तो है पर रूलाती नहीं। पर इन कुछ बातों के बावजूद मुद्दे की गंभीरता और उसको लेकर मेघना गुलज़ार की ईमानदारी के लिए ये फ़िल्म ज़रूर देखनी चाहिए।

दीपिका पादूकोण ने मालती के रोल में बहुत अच्छा काम किया है। एक एसिड अटैक सर्वाइवर का दुख, उसकी बेबसी, उसकी हिम्मत, उसकी लड़ाई- दीपिका ने इन सारे भावों को बहुत अच्छे से दिखाया है। जब वो कहती हैं कि ‘कितना अच्छा होता कि अगर एसिड बिकता ही नहीं, मिलता ही नहीं तो फिकता भी नहीं’ आपके दिल तक उनका दर्द पहुंचता है। आलोक के रोल में विक्रांत मैस्सी का काम भी बहुत ही सहज है। उनकी ख़ासियत है कि वो हर रोल में फिट होते हैं। उनकी एक्टिंग से किसी को भी प्यार हो सकता है। मधुरजीत सर्गी ने भी मालती के वकील के रोल में अच्छा काम किया है।

गुलज़ार के बोल ने टाइटल ट्रैक को बहुत मजबूत किया है, जो कहानी को पूरी तरह सपोर्ट करता है।

एसिड अटैक सर्वाइवर के दर्द को, कानूनी लड़ाई को, उसकी टूटन, उसकी हिम्मत, उसकी जीने की इच्छा को हम यूं ही नहीं समझ सकते, क्योंकि वो बहुत मुश्किल है। मेघना गुलज़ार ने इसको फ़िल्म के ज़रिए दिखाकर मुश्किल थोड़ी आसान की है। जाइए, ज़रूर देखिए। बॉलीवुड मसाला नहीं मिलेगा, पर आज के समय में इसकी ज़रूरत समझ में आ जाएगी।

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