दर्द को बयॉं करती है ‘शिकारा’


अगर आप प्यार से कोई घर बनाएं और एक दिन आपको वो घर, अपनी जगह छोड़ कर जाने के लिए कह दिया जाए, तो आपको कैसा लगेगा? आज से 30 साल पहले 19 जनवरी 1990 में कई कश्मीरी पंडितों को आतंक की वजह से अपना घर छोड़ना पड़ा था। इसी दर्द को बताती है विधु विनोद चोपड़ा की फ़िल्म ‘शिकारा’।

कहानी शिव और शांति की है। शिव प्रोफेसर हैं और कविताएं भी लिखते हैं। शांति नर्स है। दोनों एक फ़िल्म के शूट पर मिलते हैं और प्यार हो जाता है। शादी होती है और दोनों शादी की पहली रात डल झील में एक शिकारा पर बिताते हैं। इसी वजह से जब दोनों का घर बनता है, तो शांति उस घर को नाम देती है ‘शिकारा’। शादी के कुछ समय बाद ही कश्मीर में सांप्रदायिक दंगे होते हैं और कश्मीरी पंडितों को अपना घर छोड़कर जाना पड़ता है। उन्हें उम्मीद रहती है कि संसद में शोर उठेगा, वो फिर से अपने घर जा पाएंगे, पर ऐसा कुछ भी नहीं होता है।

विधु विनोद चोपड़ा ने पंडितों के दर्द को दिखाने की एक सच्ची कोशिश की है। प्रेम कहानी के सहारे उन्होंने उस त्रासदी को दिखाया है, जो 30 साल पहले हुई। उन्होंने प्रेम कहानी पर ज़्यादा फोकस किया है। कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार की तरफ हल्का इशारा करके वो शिव और शांति के प्रेम पर चले गए हैं। वो इसके बारे में बहुत बात नहीं करते कि ये हुआ क्यों? 1987 से शुरू कहानी 2018 में खत्म होती है, जहॉं अभी भी कई कश्मीरी पंडित रिफ्यूज़ी की तरह ही अपनी ज़िंदगी जी रहे हैं। कुछेक सीन में दर्द बहुत महसूस है। फ़िल्म में बछड़े वाला सीन दिल तक पहुंचता है। रिफ्यूज़ी कैंप में एक बूढ़े आदमी का बार बार ये कहना कि ‘मुझे कश्मीर ले चलो। कोई जाएगा कश्मीर, वो ज़मीन हमारी है’- आपको कचोटता है।

शिव और शांति का प्यार बहुत इम्पैक्टफुल है। उनके प्यार को देखकर प्यार पर भरोसा होता है। फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी बहुत खूबसूरत है। कश्मीर की खूबसूरती से लेकर वहॉं की ज़िंदगी तक को बहुत ही अच्छे से कैप्चर किया गया है। गाने फ़िल्म के खूबसूरत हैं। ‘ए वादी शहज़ादी’ दर्द को बहुत अच्छे से बयां करता है। फ़िल्म में बोली गई शायरी भी सुंदर लिखी गई है। कहानी के अंत में बोली गई लाइन्स बहुत खूबसूरत तो हैं ही, दर्द को भी अपने अंदर समेटे हुए हैं।

शिव के रोल में आदिल खान का काम बहुत ही अच्छा है। एक्टिंग इतनी कमाल की है कि लगता ही नहीं कि ये उनकी पहली फ़िल्म है। यही बाद शांति के रोल में सादिया के लिए भी है। एक्सप्रेशन्स कमाल के हैं उनके। स्माइल बहुत प्यारी है उनकी। प्रियांशु चटर्जी का रोल छोटा है पर याद रह जाने वाला है।

अगर आप ये सोच रहे हैं कि फ़िल्म कश्मीरी पंडितों की त्रासदी को दिखाएगी, तो आप थोड़े निराश हो सकते हैं क्योंकि फ़िल्म में उस पर ज़्यादा फोकस नहीं किया गया है। हॉं, एक खूबसूरत प्रेम कहानी को देखा जा सकता है। एक लाइन है फ़िल्म की -‘ कुछ अर्से से टूट गया हूं, खंडित हूं… वादी तेरा बेटा हूं, पंडित हूं’। कुछ दर्द अपने ना होकर भी अपने लगते हैं, इस बात को महसूस करने के लिए ये खूबसूरत फ़िल्म देखनी चाहिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *