ओह, अभी महसूस किया। मैं 9 महीनों से गायब थी। नहीं, ऐसी कुछ ख़ास वजह नहीं थी। बस, आ नहीं पाई मिलने। वैसे अभी तक तुमको ऐसा महसूस भी नहीं हुआ होगा कि मैं नहीं थी। अब मेरे बोलने पर हिसाब लगाने की कोई ज़रूरत नहीं है। ऐसा मान लो ना कि किसी सोच ने मुझे प्रेग्नेंट कर दिया था और 9 महीने बाद आज उसकी डिलीवरी है।
अजीब सा माहौल है हर तरफ। ‘डर’ नाम दे सकती हूं इसको। मरने का ख़ौफ, अपनों को खोने का ख़ौफ…एक वायरस ने पूरी दुनिया घुमा कर रख दी है। पता है, यहॉं हर तरफ शांति है। ना कोई शोर, ना कोई पॉल्युशन। लोग भी नहीं दिखते। कोई नया चेहरा देखे भी वक़्त हो गया। चाय के कप के साथ जब बालकनी में जाती हूं तो महसूस होता है कि बाहर का सन्नाटा और अंदर का शोर आपस में टकरा रहे हैं।
मैं आजकल खुद ही शब्दों को अपनी सोच की भट्टी में भुनती रहती हूं। लगता है कि शायद कुछ अच्छा बन जाए। अब ये मत कहना कि मेरे पास कोई काम नहीं है। दिन भर लोग फॉर्वर्ड मैसेज भेजते हैं। जिसको जो जानकारी मिलती है, वो उसको सबको बताना चाहता है। मैं हर दिन वो सारे फोटोज़ और वीडियोज़ डिलिट करती हूं। कभी कुछ पढ़ती हूं तो कभी कुछ लिखती हूं। दोस्तों, परिवार वालों को वीडियो कॉल करके बातें करती रहती हूं। मुझे चाहे जितना भी वक़्त मिल जाए, पर रोना हमेशा यही रहता था कि समय नहीं है। अब मैंने वो सारे रोने बंद कर दिए हैं।
लोगों को हैरां परेशां देखकर मेरी हैरत बढ़ जाती है। ये जो घर में रहने वाला मामला है, वो तो मैं हमेशा से करती आई हूं। बहुत ट्रैवल करने के बाद भी मैं कई दिनों तक घर में बंद रहीं हूं। आज की स्थिति मुझे पहले से बेहतर क्यों लग रही है? शायद इसलिए कि हमेशा अकेले रहने वाली मैं अभी अपने परिवार के साथ हूं।
जो सोच मुझे बेचैन करती है, वो है उन लोगों की तकलीफ़, जो फंसे हैं। इस वायरस से, ग़रीबी से, पैसों की कमी से, परिवार की दूरी से….कुछ ऐसे भी हैं, जो फर्ज़ में लगे हैं। मैं इसे ‘फंसना’ नहीं कहूंगी क्योंकि मैं उनकी इज़ज्त कम नहीं करना चाहती।
तुम्हें पता है, दिन में एक बार तो अपने खून को उबालती भी हूं। ख़बर मिलती है कि डॉक्टर को घर खाली करने के लिए बोला गया, क्योंकि वो हॉस्पिटल जाता है। बंद में भी लोग तफरी लगाने रोड पर जाते हैं और पुलिस को परेशानी होती है। कुछ लोगों का ये सोचना कि उनकी सोसाइटी में पैसे वाले क्लासी लोग रहते हैं तो उन्हें कुछ नहीं होगा, मुझे गुस्सा दिलाता है। कोशिश करके भी मन सहज नहीं हो पाता।
टटोला है मैंने मेरे मन को, डर भी बैठा है अंदर। पूरी दुनिया की तकलीफ़ तो डराती ही है, मेरे अपनों का क्या होगा, ये चिंता भी हमेशा सर उठाती है। जिनसे मिलना रह गया, उनसे कब मिलना होगा? क्या बहुत लोग अपनों को खो देंगे? क्या ये हम सबकी ज़िंदगी के सबसे काले दिनों में से एक है? क्या इस बेहद बदसूरत समय के बाद हिंदु मुस्लिम एक हो जाएंगे? क्या इन हालातों के बाद लोग बदल जाएंगे? उनकी सोच में परिवर्तन आएगा?
लिस्ट लंबी है…मैं नहीं जानती कि ज़िंदगी कितनी और कब तक की बची है। मैं बस इतना जानती हूं कि ये सब एक दिन बदल जाएगा। कई लोग शायद उस बदले दिन को देखने के लिए ना रूक पाएं। शायद मैं भी नहीं…पता नहीं…
‘घर में रहना मुश्किल है’, ‘यार, काम करते करते हालत खराब हो गई है’ ‘हमारी तो हमेशा लड़ाई होती है’ ‘बच्चों को पूरे दिन झेलना पड़ता है’ – अगर आप इनमें से कोई भी एक डायलॉग बोलते हैं, तो यकीं कीजिए, आप बहुत अच्छी स्थिति में हैं क्योंकि आप ये सब बोल पा रहे हैं। जो वायरस के शिकार हैं और परिवार से दूर एक कमरे में बैठे हैं, उनसे पूछो कि आप फिलहाल कितने सुख में हैं। कुछ लोग तो आपकी खुशी को बताने के लिए इस दुनिया में हैं भी नहीं।
मैं हमेशा ही खुद से खुद का सफ़र करना चाहती थी। इस हालात को मैं एक मौका मानकर वो सफ़र कर रही हूं। जी रही हूं मैं हर लम्हा, जैसे ये पल शायद सबसे कीमती हैं। आने वाला कल मैं नहीं जानती कि वो क्या लेकर आएगा…मैं आज को जानती हूं, जो मुझे फैमिली के साथ रहने का मौका दे रहा है…
ज़िंदगी ने साथ दिया तो मैं तुम्हें फिर मिलूंगी…फिर लडूंगी….फिर प्यार करूंगी…फिर तुम्हारे साथ चलूंगी….तुम्हारे साथ फिर हसुंगी, फिर रोउंगी…फिर हम दोनों साथ देखेंगे….इस खूबसूरत रंग बिरंगी दुनिया को…
Nice writing shweta.. so expressive n touchy..
Achha aanklan hai..waise bhi mujhe umeed bhari roshni pasand hai 🥰👏
Hi Shweda..pls do let me know your number.
Ashish Dwivedi