जज़्बे से भरी ‘गुंजन सक्सेना’


‘मुझे नहीं पता कि दुनिया कितनी मुश्किल है औरतों के लिए, पर उसका हल पिंजड़े में कैद हो जाना नहीं है, पिंजड़ा तोड़ कर उड़ जाना है।’

नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘गुंजन सक्सेना : द कारगिल गर्ल’ में गुंजन के पिता उसको ये बात समझाते हैं। फ़िल्म भी यही मैसेज देने के लिए बनाई गई है। मिडिल क्लास फैमिली की लड़की, जिसका बचपन से सपना है कि वो पायलट बने, किस तरह से मेल डॉमिनेटिंग सोसाइटी में अपने सपने को पूरा करती है, डायरेक्टर शरण शर्मा ने अपनी फ़िल्म में इसी जज़्बे को दिखाया है।

गुंजन सक्सेना, कारगिल वॉर के वक़्त पर अकेली महिला एयरफोर्स पायलट थी, जिन्होंने कई भारतीय जवानों को सुरक्षित वापस लाने का काम किया था। गुंजन की मॉं और भाई उनके इस सपने के ख़िलाफ थे। जहॉं मॉं पंडित से उपाय पूछती रहती, वहीं आर्मी में भर्ती भाई, गुंजन को ये समझाता रहता कि लड़कियों के लिए वो जगह बनी नहीं है। गुंजन को सपोर्ट मिलता है अपने पिता का, जो हर कदम पर अपना साथ देते हैं।

गुंजन सक्सेना की इस बायोपिक से महिलाओं के हौसले को हिम्मत ज़रूर मिलेगी। एयरफोर्स पायलट की ट्रेनिंग के दौरान गुंजन की परेशानियॉं, उन्हें डील करने का उनका तरीका अच्छा दिखा है। मानुष नंदन का कैमरा वर्क बहुत अच्छा रहा है फ़िल्म में। डायलॉग्स वैसे तो सिंपल ही हैं, पर कुछेक सीन मजबूत बने हैं। गुंजन के पिता जब उसको किचन में जाकर मसाले के बारे में पूछते हैं और कहते हैं कि मेरी बेटी धनिया पाउडर नहीं पहचानती, तो आपको हंसी भी आती है और एक पिता की बात समझ भी। ट्रेनिंग सेंटर पर जब सारे ऑफिसर्स ‘चोली के पीछे क्या है’ गाना चला रहे होते हैं, तब गुंजन वहॉं जाकर जो करती और बोलती हैं, वो भी इंट्रेस्टिंग लगता है।

फ़िल्म में जो खटकता है, वो है जान्हवी कपूर की एक्टिंग। गुंजन सक्सेना के जज़्बे के रंग को वो पूरी तरह कैनवास पर उतार नहीं पाती। हालांकि फेशियल एक्सप्रेशन फिर भी ठीक रहे हैं, पर ऑंखों का खालीपन कहीं कहीं अखरता है। डायलॉग बोलते वक्त वो काम खराब करती हैं। काम बनाने का काम पंकज त्रिपाठी ने किया है। पिता के रोल में वो बस कमाल कर गए हैं। बहुत सारे फादर्स को उनसे बहुत कुछ सीखने का मौका मिलेगा। पंकज के कुछ एक्सप्रेशन्स कमाल के होते हैं और उनको देने में महारत भी बस उन्हीं को हासिल है। फ़िल्म है गुंजन सक्सेना की, पर ये बाप-बेटी की फ़िल्म बन पड़ी है। पंकज त्रिपाठी ने इस फ़िल्म में जान डाली है। भाई के रोल में अंगद बेदी के कैरेक्टर को बहुत अच्छे से लिखा नहीं गया। वो दुखी से ही दिखे हैं पूरी फ़िल्म में। विनीत कुमार का काम अच्छा है। पुरूषवादी सोच को विनीत ने अच्छे से दिखाया है। मानव विज के एक्सप्रेशन्स भी फ़िल्म में सही लगे हैं।

जज़्बे से भरी इस कहानी को एक बार सिर्फ इसलिए देख लेना चाहिए कि शायद इससे किसी महिला को अपने सपने पूरा करने का हौसला मिले और शायद एक पुरूष ये समझ सके कि काबिलियत, शारीरिक शक्ति से निर्धारित नहीं होती।

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