अफ़सोस


कल शाम नानी घर गई थी। पता नहीं क्यों, पर वो मेरे चेहरे को ऐसे निहार रही थी, जैसे पहले कभी नहीं देखा। पूछा भी मैंने उनसे, आज क्या ख़ास है मेरे चेहरे में, जो ऐसे ऑंखें गड़ा कर बैठी हो, तो उनका जवाब आया – ‘डर’। मैं समझी नहीं….या शायद समझी…पर फिर भी उनके जवाब का इंतज़ार करने लगी। मैंने उनका हाथ अपने हाथ में लिया और उनकी झुर्रियों से खेलते हुए पूछने लगी, ‘कैसा डर नानी?’
नानी ने अपना हाथ छुड़ाया और पल्लू से ऑंखों को पोंछते हुए बोली -‘ तुझे फिर से ना देख पाने का डर’।
मैं मानों कुछ समय के लिए शून्य में चली गई। होश में आते ही मैंने उन्हें गले लगाया और गुस्सा करने लगी। ‘कौन जा रहा है छोड़ कर, जो ऐसी बातें कर रही हो?’
नानी हंसी और बोली कि ‘बिल्कुल अपने नाना जैसी बातें करती है। वो भी ऐसे ही बोलते थे, पर चले गए ना छोड़कर। मेरी भी उम्र हो चली है। क्या भरोसा, कब बुलावा आ जाए, तो ऐसे में तुझे देखने का मौका क्यों छोड़ूं भला?’
अबकी बार मेरी आँखों में ऑंसू थे। मैंने नानी को खुद से थोड़ा दूर किया -‘ अगर बुलावे की बात है नानी, तो मैं भी तुमको निहार ही लेती हूं, मेरे भी बुलावे का क्या ही भरोसा ना फिर तो।’
नानी ने मुझे झूठमूठ का गुस्सा दिखाते हुए पागल कहा और हम दोनों ही फिर हंसने लगे।

तुम्हें पता है, जब नानी घर से मैं वापिस आ रही थी, तो मन में खुद से वादा कर रही थी कि अबसे जल्दी जल्दी जाया करूंगी। वैसे तो ज़िंदगी में अफ़सोस और काश रह ही जाते हैं, पर वो कम हों, ये कोशिश तो की जा सकती है।

रात में जब टहलने निकली तो दीक्षा मिल गई, अपनी सास के साथ। परसों ही वो लोग मेरे बगल वाले घर में शिफ्ट हुए थे। साथ टहलने लगे तो बातें होने लगी और उन्हीं बातों में पता चला कि अंकल 4 महीने पहले ही गुज़रे हैं। दुख भी हुआ ये सोचकर कि यहॉं भी कोई ना कोई अफ़सोस रहा ही होगा।

दिन ऐसे बीता कि बस तुमको ही सोचे जा रही हूं। तुम्हारी शिकायत करने का मैं एक मौका नहीं छोड़ती। तुम ऐसा नहीं करते, तुम वैसा नहीं करते…कहते कहते मेरा पूरा दिन बीत जाता है। हमारी बेटी समझदार है और शायद इसीलिए वो कहती भी है कि कितनी शिकायतें हैं ना तुम्हारे पास। जब भी ऐसे किसी दिन से गुज़रती हूँ ना तो लगता भी है कि सारी शिकायतें, सारे शिकवे फिज़ूल हैं, पर गुस्से में समझ जैसे घास चरने चली जाती हो। सोचती भी हूं कि मैं मच्छर या जोंक वाली प्रजाति में भी तो नहीं, जो सिर्फ खून पीकर ही ज़िंदा रह सकूं…पर फिर भी…

मिले तो हम दोनों एक दूसरे को मनचाहे रूप में थे, पर वक़्त के साथ इतनी पेचीदगी आती चली गई, जिसका आभास ही ना हुआ। बेटी कई बार पुल बनकर हमें जोड़ने का काम करती है, पर उसे इसके लिए तो हम इस दुनिया में नहीं लाए थे ना। जब विदा होकर वो चली जाएगी और एक छत के नीचे हम दो ही रह जाएंगे, तब क्या होगा?

ज़िंदगी सबको साथी नहीं देती, हमें दिया है। साथ रहने का मौका भी मिल रहा है, तो फिर साथ रहते हैं ना। साथ रहकर भी साथ नहीं होने से बड़ी बदनसीबी और क्या होगी? सब कहते हैं कि समय के साथ सोच, विचारधारा, आदर्श और रिश्ते…सब बदलते हैं, तो चलो ना, ये बदलाव मजबूती में किया जाए।

जब नानी, नाना की बात करती हैं ना, तो उनके चेहरे पर एक चमक रहती है। एक ही अफ़सोस दिखता है कि और साथ रहना था। हम शायद ज़्यादा अफ़सोस में रह जाए कि ऐसा किया होता या वो नहीं बोला होता…मुझे नहीं रहना ऐसे किसी काश में। मैं जितना भी रहूं, पूरी रहना चाहती हूं।

आओ, ज़िंदगी को वैसा बना दें, जैसा चाहते हैं। आओ, एक घर हमारे प्यार से बसना चाहता है, उसे बसा दें। आओ, कि ज़िंदगी का भरोसा नहीं और अभी बहुत साथ रहने की ख़्वाहिश बाकी है। आओ, सॉंसे थम जाएं, उससे पहले साथ हो जाएं…

5 thoughts on “अफ़सोस

  1. 😔😔😊😊
    एक पल एक जिन्दगी।
    दूसरा पल दूसरी जिंदगी के लिए।
    इतना ही तो जीना है
    कुछ यहां, कुछ वहां
    कुछ मनचाहा, कुछ अनचाहा
    क्या सोचना इतना, सब अनुभव ही तो है
    चाहे खट्टा या मीठा, सारे स्वाद हमारे ही तो हैं।

  2. Wow absolutely correct … Superb .. I just want to say that each n every one person have thoughts like this but the devil part is actully EGO. We don’t want to overcome so life becomes worst day by day ..😘😘😘👏

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