ये वक़्त और ‘तुम’


‘वक़्त की ख़ासियत ही यही होती है कि वो एक जैसा नहीं रहता, बदलता रहता है’-
बचपन से ही ये बात सुनती आ रही हूं, फिर भला ये चीखों से भरा वक़्त क्यों नहीं गुज़र रहा?

‘जो होता है, वो अच्छे के लिए होता है’ –
तो जो अभी हो रहा है, उसमें कुछ भी अच्छाई क्यों नहीं दिख पा रही?

हर किसी की ज़िंदगी में ‘तुम’ होता है और उस ‘तुम के साथ सबके रिश्ते अलग अलग, रूप अलग अलग, उससे मिलने वाले अहसास अलग अलग होते हैं….कैसे बोलें कि किसका दर्द ज़्यादा है?

कई बार ये ‘तुम’ घर का ही कोई अपना होता है तो कई बार करीबी रिश्तेदार। वो ‘तुम’ कभी पति, कभी साथी, कभी संतान, कभी रिश्तेदार, कभी दोस्त, कभी शिक्षक, कभी छात्र, कभी पड़ोसी, कभी किसी अजनबी के रूप में हम सबकी ज़िंदगी में है। किसी के भी ‘तुम’ का जाना बेचैनी दे सकता है पर वो बेचैनी चार-पॉंच दिन में थोड़ी थोड़ी शांत भी हो जाती है। आखिर कोई कब तक उस दुख में बना रहेगा, पर उनका क्या, जिनका ‘तुम’ गया…वो अटक जाते हैं….बिना शब्द के….बिना ऑंसू के….एक सूनेपन में….

कुछ ऐसे रिश्ते भी होंगे, जो पहले हुआ करते थे, जो अब नहीं हैं और उनके जाने की ख़बर आप तक शायद कभी पहुंचे भी नहीं, पर ख़याल में वो आ ही जाते हैं। उन रिश्तों का क्या, जिन्होंने आपस में कुछ वादे किए होंगे। उनमें से कोई एक भी चला गया, तो सामने वाला किस किस को जाकर उन वादों की दुहाई देगा? कुछ यूं भी हुआ होगा कि सपने देखने अभी शुरू ही किए होंगे कि साथ छूट गया होगा। वो रिश्ते, जिनके बारे में सिर्फ वही दो लोग जानते होंगे, उनमें से एक रह गया तो वो जाकर किसको क्या कहे? किसके सामने जाकर रोए और रोने की वजह तो क्या ही बताए? कभी मॉं-बाप चले गए, बच्चे रह गए, तो कभी बच्चे रह गए और मॉं बाप चले गए…जो बिना किसी सहारे कुछ नहीं कर सकते उनका ‘तुम’ चला जाए तब?

मन डरता है….जो हो रहा है, उसको देखकर….जो हो सकता है, उसको सोचकर… मैं जानती हूं कि आधे से अधिक डर उन संभावनाओं का होता है, जो कभी होती ही नहीं, पर तब क्या, जब आपको मालूम हो कि ‘ये वाली संभावना’ एक ना एक दिन का शाश्वत सत्य है।

लोग जाते हैं और हम दर्द में आते हैं। उसके बाद बस बातें, किस्से और यादें रह जाती हैं। आखिर कोई रोए भी कितना और कब तक? दिल का दर्द हमेशा आंसूओं में नहीं निकल सकता…वो कभी कभी लबों की मुस्कुराहट में भी रहता है, जिसे देख पाना हर किसी के लिए मुमकिन नहीं…

बहुत सारी चीज़ें लिखी और कही गई हैं पॉज़िटिव रहने के लिए, पर इन सबके बाद भी कुछ डर ऐसे होते हैं, जो दिल के एक कोने में जगह बनाकर बैठ जाते हैं। जो अभी ऑंखों के सामने है, जिसकी आवाज़ फोन पर उपलब्ध है, वो सबअगले पल नहीं भी हो सकते हैं, इस बात के डर से कौन भला बच सकता है?

ऊपर की सारी बातों के बावजूद मैं ये जानती हूं कि हम हमेशा जैसे रोते नहीं रह सकते, वैसे ही हमेशा डर में भी नहीं रह सकते। निकलना ही होगा इससे…आगे बढ़ना ही होगा…. जो अपने हाथ में ही नहीं, उस पर कैसे काबू पा सकते हैं?

तो चलिए, निहारते हैं उस रिश्ते को, जो अभी आपके पास है….संवारते हैं उसे, जिसके ना होने की कल्पना आपको डराती है…बरसों से बहुत कुछ जमा करके रखता है मन, उसे खाली करते हैं….

बेचैनी, डर, दर्द, ऑंसू….मिलते ही रहेंगे ज़िंदगी में…किसी के जाने के बाद उसकी यादों और बातों का सहारा लेना ही पड़ेगा…अजीब सी ही बात है कि ज़िंदगी यादों से भरी रहती है, पर फिर भी खाली होती है। हमें ‘तुम’ को जीवित रखना पड़ता है, हमारे लिए… हमें खुद ही भरने पड़ेंगे हमारे मन के पन्ने, उन शब्दों से, जिन्हें हम हमेशा से लिखना चाहते थे…

‘तुम’ बस ज़िंदा रहना…

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