‘कुछ’….


आज मैने पहली बार

किताब छोड़ एक चेहरा पढ़ा…

चेहरा …

जो मुस्कुरा के अपनी बात कर रहा था

पर हाँ

सहारा मेरा लेकर

उसे ज़िद थी

अपने आँखों के भावों को

मेरी आँखों मे पढ़ने की

मेरी धड़कनों को

अपने दिल में सुनने की

क्यूं ऐसा हो गया

कि

मेरे शब्दों में

तूने खुद को ढूंढा?

मेरी निगाहों को ना पाकर ये व्याकुलता क्यूं?

दो दिन कि जुदाई क्यूं तुझे लम्बी लगी?

मुझे पता है कि

लकीरों मे बंधा तू

मुझसे कभी कुछ ना कह पाएगा

पर हाँ

मैंने जान लिया है

कि

तेरे अंदर ‘कुछ’ है

और सच कहूँ तो

आज मुझे महसूस हुआ है

कि ये तेरा कुछ बांझ भी नहीं

जो एक और ‘कुछ’

पैदा ना कर सके …..

tree-of-life

Leave a Reply

Your email address will not be published.