बेड़ियां..


कबसे फोन की घंटी बज रही है पर उठने की हिम्मत नहीं हो रही। सर में सुबह से ही बहुत दर्द है ….बाई भी नहीं आई ….तुम्हारी तरह ही मनमौजी हो गई है ….कभी भी बिना बताये चली जाती है। इंतज़ार करते रहो बस। नीता आई थी तबीयत पूछने, मैंने हस के ही सही पर उसको सच बता दिया कि दिल का दर्द है जो अब सर चढ़ के बोलने लगा है। कल गई थी सेमीनार में। अनिल जी ने बहुत अच्छा भाषण दिया। गेम्स भी बहुत हुए। कपल डांस मे सबसे ज़्यादा मज़ा आया। बहुत सारे नये लोगों से भी मिली। अब सोसाइटी में बहुत सारे लोग आ गये हैं। अलग अलग चेहरे, उन सब का अलग अलग नज़रिया। अच्छा सुनो, क्या तुम भी सिर्फ बच्चों के लिए मेरे साथ हो ? मेरा मतलब है कि अगर हमारे बच्चे नहीं होते तो ? क्या तुमने ऐसा किसी को कहा कि बच्चे नहीं होते तो मैं इसके साथ नहीं रहता ? ओह गॉड….मैं भी कैसी कैसी बातें पूछ रही हूं ना…पर मेरी गलती नहीं है। ज्यादातर लोग ऐसे ही मिले कल जो बच्चों के नाम पे साथ थे।खुद की ही रचना मजबूरी भी बन सकती है, इसका एहसास पहली बार हुआ। जिन्होंने इस रचना को नहीं माना, उनका क्या ? मतलब कि जिनके लिए ना ही ये बेड़ी और ना ही मजबूरी…उनके बच्चे कैसे रहते होंगे?  आशु को देखती हूं तो मेरी ममता उछालें मारती है। उसके माता पिता के लिए वो बेड़ी नहीं बना। दोनों ने खुद को मुक्त कर लिया उससे…या शायद उसको मुक्त कर दिया हर दिन के शोर से…

हां मुझे पता है कि कहोगे कि आज कैसी बावली जैसी बातें कर रही हूं….पर अब कर रही हूं तो कर रही हूं…तुमने मुझे मां बनने का सुख दिया है तो ममता के भाव को कैसे दबा दूं भला। कपड़े बुनने वाला पैसे के लिए अपनी उस दिन रात की मेहनत को बेच देता है, नानी दादी स्वेटर बुन के अपने नाती पोती को पहना देती हैं। इक तरह से ये सब भी तो उनकी रचना ही हुई ना? तो क्या मां बाप भी अपनी रचना को इतनी ही आसानी से दे सकते हैं वक्त को? चलो छोड़ो, क्या कर सकते हैं हम तुम? आशु बड़ा हो गया है। जानते हो, जब मैंने उससे पूछा कि याद आती है तुम्हें मां पापा कि तो कहता है कि मुझे नहीं लगता कि उन्हें मेरी याद आती होगी। वो लोग मेरे बिना पूर्ण हैं और अब मैंने भी अपनी पूर्णता उनके ना रहने में ढ़ूंढ़ ली है…..maa beta

अच्छा सुनो, अब मैं जा रही हूं….मेरे बच्चे मेरे बिना रो रहे हैं……

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