किस्सा…


बहुत दिन हो गये थे कुछ लिखे, तो सोचा कि आज एक किस्सा ही लिख डालूं।हां… किस्सा… जिसकी शुरुआत तब हो गई थी जब मैं 11वीं में पढ़ती थी। फ़ैज़ल नाम था उसका। आते जाते मिल ही जाया करता था। बड़ा था मुझसे…कॉलेज में गया ही था। उसको देख कर मैं जाने क्यों बहुत ज़्यादा हड़बड़ा जाया करती थी। इस घबराने या हड़बड़ाने के पीछे मज़हब कारण नहीं था। कुछ और वजह थी इन धडकनों के बढ़ने की जिससे भले ही मैं उस वक़्त मुखातिब नहीं थी पर आज हर भाव का मतलब समझने में सक्षम हूँ। एक दिन अचानक ही घर लौटते समय पीछे से किसी की आवाज़ आई – सुनो। मैं आवाज़ सुन कर वहीं ठिठक गई क्यूंकि इस आवाज़ को पहचानने में मेरे कानों को बहुत ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी। जानती थी कि फ़ैज़ल था। बिना मुड़े ही मैंने पूछा- क्या हुआ?  बोलो। जाने किस बात से डर रही थी मैं? शायद ये डर था कि कहीं वो मेरी आँखें ना पढ़ ले या फिर कहीं मेरी धड़कन उसे ना सुनाई दे जाये…आज जहां ज़ुबां सब बताने को बेकरार रहती हैं, उस समय उसे ज़िद थी शब्दों को अपने अंदर छिपाने की। फ़ैज़ल थोड़ा आगे बढ़ के आया। मेरे हाथ को पकड़ के मुझे अपनी तरफ मोड़ा और मेरी आँखों में पूरी तरह उतर के मुझसे पूछने लगा – ये चल क्या रहा है? मैंने दुनिया की सारी मासूमियत को अपने अंदर समेटते हुए उसी से पूछ डाला कि क्या चल क्या रहा है? मेरी बात से वो थोड़ा अटक गया…तुम अच्छे से समझ रही हो। मैंने नादान बनते हुए कहा कि नहीं समझ रही, चाहो तो अल्लाह की कसम उठवा लो। उफ्फ्फ्फ्फ्फ…अल्लाह के कसम की दुहाई देकर मैंने कोशिश पूरी की थी कि मैं उसको बेगम के रूप में नज़र आ सकूं। उस समय भी मेरा दिमाग इतना तो समझ चुका था कि यूं बीच राह में अगर फ़ैज़ल ने मुझे रोका है तो मेरी सोच ने उसकी ज़िंदगी में कुछ तो हलचल मचाई ही होगी। फ़ैज़ल ने कुछ पल मुझे देखा जैसे कुछ समझने की कोशिश कर रहा हो और फिर वो चला गया। वो पूरी रात मैं सिर्फ बिस्तर में सिलवटें ही बनाती रह गई। फ़ैज़ल ने कुछ पल मुझे देखा जैसे कुछ समझने की कोशिश कर रहा हो और फिर वो चला गया। वो पूरी रात मैं सिर्फ बिस्तर में सिलवटें ही बनाती रह गई।  अगले दिन जब घर से स्कूल जाने के लिये निकली तो सोच में फ़ैज़ल नाम का भंवर चल रहा था। जी तो बस ऐसा ही कुछ था कि मैं भी उसमें कहीं उड़ जाऊँ। रास्ते भर इधर उधर देखती रही कि शायद कहीं फिर से कोई आवाज़ सुनाई दे जाये। क्लास में मन भी नहीं लगा मेरा। मैंने मान लिया था कि इस सोच को कहीं पहुचना तो था नहीं। फिल्म्स भी ऐसी ही आ रही थी जिनका अंत आँसुओं का सैलाब लाता था। अपने ही उधेड़बुन में मैं घर जाने के लिये निकली। ठीक उसी जगह पे फिर से मैंने सुना- सुनो, तुम भी मुझे बहुत अच्छी लगती हो, पर ये मुमकिन नहीं। आगे मत बढ़ना वर्ना दर्द होगा। किसी ने ज़ख्मों पे हाथ नहीं फेरा तो वो ठीक भी नहीं हो पायेगा। सही यही है कि ज़्यादा उफान वाले समंदर में तैरने के लिये नहीं उतरना चाहिये। मुझे सब कुछ धुंधला दिख रहा था। आंसूंओं ने अपना घर बना लिया था। मैंने बस हम्म्म्म  कहा और मैं जाने के लिये मुड़ी। मेरे मुड़ते ही फ़ैज़ल ने मेरा हाथ पकड़ा और कस के अपने सीने से भींच लिया। वो हमारी आखिरी मुलाकात थी। हम दोनों ने एक दूसरे को ढ़ूंढ़ने की कोशिश नहीं की। शायद यही सही था…

उसके शब्द आज भी मेरे कानों में गूंजते हैं – जा रहा हूँ, पर मेरे जितना तुमको कभी कोई नहीं चाह पायेगा। आज इस बात को एक लम्बा अर्सा हो गया है पर आज भी अगर कुछ याद है तो फ़ैज़ल की ही बात…

अच्छा सुनो तो…मुझे कुछ जलने की बदबू आ रही है। ज़रा देखना तो कि आग भला कहाँ लगी…मैं तो बस किस्सा लिख रही थी…

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