‘लैला मजनू’ रिव्यू


ज़िंदगी में प्यार करना बेहद ज़रूरी है, पर प्यार में पागल होना उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है। फेसबुक, स्नैपचैट और टिंडर पर प्यार की कहानी दिखाने वाले कई दिखते हैं, पर कोई असल ज़िंदगी में प्यार की कहानी लिख जाए, ऐसा कम देखने को मिलता है। साजिद अली के ‘मजनू’ ने, ‘लैला’ के लिए प्यार के उस जुनून को दिखा दिया है और इसीलिए मजनू कहता भी है – “प्यार का प्रॉब्लम क्या है न, जबतक कि उसमें पागलपन न हो, वो प्यार ही नहीं।”

कहते हैं कि ‘लैला-मजनू’ की कहानी अमर थी, जो ना कभी दब सकती थी और ना ही कभी मर सकती थी। अरबपति शाह अमारी के बेटे कैस की किस्मत में प्रेम की ये लकीर पहले से ही थी। ज्योतिषियों ने तो भविष्यवाणी भी कर दी थी कि ये प्रेम में दर-दर भटकेगा। कैस को प्रेम से महरूम रखने के लिए कोशिशें भी बहुत हुई, पर सब बेकार। इम्तियाज़ अली का कैस भी तो यही कहता है – “तुझे क्या लगता है, ये हम कर रहे हैं? हमारी कहानी लिखी हुई है।”

इम्तियाज़ ने उसी इश्क़ को दिखाया है, जो रोके से भी नहीं रूकता। जो हर देश, हर शहर, हर गली में पाया जाता है….कश्मीर में भी पाया गया…कैस भट्ट (अविनाश तिवारी) और लैला (तृप्ति डिमरी) के दरमियां। फ्लर्ट से शुरू हुई कहानी प्यार में बदली और प्यार बदला पागलपन में। प्यार के इसी पागलपन ने कैस को ‘मजनू’ नाम दिया, जो मोहब्बत का पर्याय बन चुका है। अब ऐसा भी नहीं कि मजनू शुरू से ही मजनू था। मजनू तो पहले कैस था, दिलफेंक था। लैला को देखकर उसको प्यार करना आया। बात ना बनने पर वो लंदन भी गया, दूर रहकर भी देखा, पर ये सारी कोशिशें नाकामयाब ही रहीं। लैला के साथ नहीं रह पाने का दर्द, इतंज़ार की कसक इतनी ज़्यादा बढ़ गई, मजनू का प्यार लैला के लिए उस ऊंचाई तक पहुंच गया कि उसको हर जगह लैला दिखने लग गई। मजनू के लिए हर चीज़ में लैला थी, हर जगह लैला थी, हर सोच में लैला थी। कह सकते हैं कि मजनू की ज़िंदगी ‘लैलामय’ हो गई थी। लोगों ने मजनू के इस तरीके को, इस प्यार को और इस पागलपन को नहीं समझा और इसीलिए उसको पत्थर से मारा। साजिद अली की लैला गाना नहीं गाती कि “कोई पत्थर से ना मारो मेरे दीवाने को”, वो आकर भीड़ पर गुस्से से चिल्लाती है। इश्क़ में फ़ना होना आसान नहीं, पर लैला अपने मजनू तक पहुंचने के लिए जान देती है और ‘प्यार में पागल’ मजनू उसके मज़ार पर जाकर आखिरी सॉंसें लेता है।

इम्तियाज़ की कहानी और साजिद के डायरेक्शन ने मिलकर 2018 को ‘लैला-मजनू’ की जो सौगात दी है, वो लोगों को सोशल मीडिया से बाहर निकलकर प्यार करना ज़रूर सिखा देगी। ऐसा सुफ़ियाना प्यार इतने खूबसूरत तरीके से सिर्फ इम्तियाज़ अली ही ला सकते हैं। प्यार की गहराई को इम्तियाज़ के डायलॉग्स ने बेहद ही खूबसूरत तरीके से बताया है। साजिद अली ने भी अपने भाई की लिखी कहानी को बेहद ही उम्दा तरीके से दिखाया है। कुछ कुछ डायलॉग्स आपकी रूह तक पहुंचते हैं। नमाज़ पढ़ते हुए लोगों को मजनू का ये कहना कि “मैं अपनी माशूका के साथ बातें कर रहा था, मैंने नहीं देखा, आप भी तो अपनी माशूका के साथ थे, फिर आपने मुझे कैसे देख लिया?” मजनू का ये कहना कि “दुनिया होती है, दुनियादारी होती है” भी आपको खुद से जुड़ा महसूस होता है।

फ़िल्म के डायरेक्टर, एक्टर और एक्ट्रेस- तीनों ही नए हैं, पर फ़िल्म देखने के बाद ये बात झूठी लगती है। साजिद ने लैला-मजनू की कहानी को एक अलग ही अंदाज़ में दिखाया है। ऐसा लगता है जैसे अपने भाई इम्तियाज़ की तरह उनमें भी वो सुफ़ी प्यार दौड़ता है। फ़िल्म का फर्स्ट हाफ जहां कैस और लैला की चुहलबाज़ी में मस्ती भरा गुज़रता है, तो वही दूसरे भाग में प्यार की वो शिद्दत अलग ही तरीके से दिखती है। साजिद की फ़िल्म का सेकेंड हाफ दर्शकों को ज़्यादा खींचेगा। साजिद अपनी पहली ही फ़िल्म में बेहद ईमानदार और प्यार की गहराई को दिखाते नज़र आए हैं।

मजनू उर्फ अविनाश तिवारी नए हैं और इसीलिए उन्होंने मजनू की एक्टिंग नहीं की। उन्होंने मजनू को जिया है, पूरे तरीके से। उनके काम की ईमानदारी साफ दिखती है। ‘तू है मेरा संडे’ में जब वो राशिद के रोल में दिखे थे, तब भी उनके टैलेंट पर विश्वास हुआ था पर मजनू के किरदार ने शक की हर गुंजाइश मिटा दी। इम्तियाज़ के डायलॉग्स को बोलते हुए बहुत सारी बातों का ध्यान रखना पड़ता है। अगर आपने सही जगह कौमा या फुलस्टॉप नहीं लगाया, सही ठहराव के साथ नहीं बोला तो वो अपना अर्थ खोने लगते हैं। अविनाश ने इन सब बारीकियों का पूरा ध्यान रखा है। इसे अविनाश का टैलेंट ही माना जाएगा कि पहली डेब्यू फ़िल्म में ही उनको इतने अलग शेड्स निभाने का मौका मिला। दिलफेंक आशिक से लेकर प्यार में पागल प्रेमी तक के सफर को उन्होंने दिलोजान से निभाया है। कई जगह उनके हाव भाव पूरे तरीके से दिल को छूते हैं। नमाज़ पढने वाले जब मजनू को पत्थर से मारते हैं, तब खून टपकते उस चेहरे की मासूमियत दिल को चीर जाती है, तो वही ‘हाफ़िज़’ गाने में अविनाश का पागलपन उनकी एक्टिंग का लोहा मनवाता है। ये प्यार की इंतिहा ही होती है जो मजनू को ‘लैला’ में ही ‘लाइलाही’ समझ आता है। जो टैलेंट दिखाने में एक्टर्स 10-12 फ़िल्में ले लेते हैं, अविनाश ने वो एक ही फ़िल्म में साबित कर दिया। अगर वो इस साल अवॉर्ड ले जाएं, तो इसमें कोई भी आश्चर्य की बात नहीं होगी।

तृप्ति डिमरी भी नई हैं, पर उनकी एक्टिंग में जो ठहराव दिखता है, वो उनकी काबिलियत की तरफ इशारा करता है। सुंदर तो वो हैं ही, साथ ही साथ उनके एक्सप्रेशन भी कमाल के हैं। गुस्सा हो, प्यार हो, तड़प हो या फिर कोई शैतानी- वो कमाल की लगी हैं। ‘मैंने प्यार किया’ को फॉलो करने वाली लैला के रुप में तृप्ति अच्छी लगी हैं। कई जगह तो बिना बोले ही, सिर्फ एक्सप्रेशन से उन्होंने बातें कह दी हैं।

सुमित कॉल ने भी लैला के पति के रोल में बहुत ही अच्छा काम किया है। सुमित की एक्टिंग इस फ़िल्म में ऐसी है, जिसे आप किसी भी तरीके से भूल नहीं सकते और ना ही नकार सकते हैं। अपने एक्सप्रेशन, अपने डायलॉग्स में वो बहुत आगे गए हैं। परमजीत सेठी ने भी लैला के बाप का किरदार सही निभाया है। मजनू के दोस्त के रोल में अबरार काज़ी भी अच्छे लगे हैं। बेंजिमिन दिलानी और साहिबा बाली भी अपने रोल में जमे हैं।

प्रेम कहानी को अगर सधा संगीत मिल जाए, तो उसका असर बढ़ जाता है। इस रूहानी कहानी के साथ भी ऐसा ही है। फ़िल्म में कुल मिलाकर 10 गाने हैं, पर कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि वो ज़्यादा हैं या थोपे हुए हैं। इरशाद कामिल के लिखे शब्द जब अरिजीत सिंह, मोहित चौहान, आतिफ असलम, श्रेया घोषाल की आवाज़ में सुनाई देते हैं, तो वो कानों के साथ साथ रूह तक भी पहुंचते हैं।’ओ मेरी लैला’, ‘हाफ़िज़’, ‘सरफिरी’, ‘आहिस्ता’ गाने ज़बान पर चढ़ने वाले गाने हैं। निलाद्री कुमार और जॉय बरूआ ने बहुत ही कमाल का म्यूज़िक दिया है फ़िल्म में। 2018 का बेस्ट म्यूज़िक एल्बम भी इसे कहा जा सकता है।

ज़माने बाद इस तरह का रोमांस, इस तरह की एक्टिंग को देखने का मौका मिला है, जिसे आपको मिस नहीं करना चाहिए।

इस फ़िल्म को मिलते हैं 4 स्टार्स।

 

One thought on “‘लैला मजनू’ रिव्यू

  1. I loved the way you express the core of the movie , this one is wonderful ❤️❤️❤️

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