कॉलेज की मस्ती, दोस्तों की बदमाशी, रैगिंग, इश्क़, खेल कॉम्पिटिशन और उसके लिए सब कुछ दांव पर लगा देने का जज़्बा…इन्हीं सब यादों को रिफ्रेश करने के लिए सुपरहिट फ़िल्म ‘दंगल’ के डायरेक्टर नितेश तिवारी लेकर आए हैं ‘छिछोरे’। ‘छिछोरे’ नाम सुनकर लगता है कि वाहियात सी कोई फ़िल्म होगी, गंदे गंदे डबल मीनिंग डायलॉग्स होंगे, फिर फ़िल्म के प्रमोशन को लेकर कोई बहुत हंगामा भी नहीं हुआ तो हो सकता है कि आपके दिमाग में ये बात आ जाए कि आखिर ये फ़िल्म देखें क्यों? मेरे दिमाग में भी ये बात आई थी और ईमानदारी से कहूं तो दंगल को याद करके चली गई। यकीं कीजिए, मैं एक स्माइल के साथ बाहर आई।
एक डिवोर्सी कपल, जिनका बेटा फेल होने पर सुसाइड करने की कोशिश करता है क्योंकि वो लूज़र नहीं कहलाना चाहता, उसको अपने कॉलेज के किस्से सुनाते हैं, जब उन्हें लूज़र कहा जाता था। ये फ़िल्म उन्हीं किस्सों के साथ बनी हैं। ये कहानी H3 और H4 के बीच टक्कर की है। कहानी सेक्सा, अन्नी, माया, एसिड, डेरेक, रैगी, बेवड़ा, मम्मी की है। कहानी, जिससे आप जुड़ा हुआ महसूस करेंगे। जहां आप रैगिंग को अलग तरीके से जानेंगे। जहां आपको समझ आ जाएगा कि छिछोरे का जो मतलब आप समझते हैं, उसका अर्थ उससे अलग भी है। कुछ भी मज़ाक मस्ती अश्लील नहीं है। ह्यूमर ऐसा नहीं है कि देखते हुए आपको मुंह पर हाथ रखकर अपनी हंसी दबानी पड़े। कुछ डायलॉग्स तो बहुत ही फ़नी हैं। कहानी इमोशनल भी करेगी और आप पेट पकड़ कर हंसेगें भी। स्लोगन लिखने का सीन हो या कुक को कोच बनाने का सीन, सेक्सा के डायलॉग्स हों या फिर एसिड की गालियॉं, सब कुछ मज़ेदार है। ‘3 इडियट्स’ या फिर ‘जो जीता वही सिकंदर’ की झलक भले ही इसमें दिखे, पर ये फ़िल्म एक अलग ही मैसेज देती है। नितेश तिवारी का ट्रीटमेंट बहुत ही अलग है। अन्नी का एक डायलॉग है कि ‘सक्सेज़ के बाद का प्लान सबके पास है, पर ग़लती से फेल हो गए तो उसके बाद का प्लान किसी के पास नहीं’। नितेश तिवारी ने बहुत ही खूबसूरती के साथ ये बात अपनी फ़िल्म में कह दी है कि ‘रिज़ल्ट डिसाइड नहीं करता कि हम लूज़र हैं या नहीं, हमारी कोशिश डिसाइड करती है’। फ़िल्म में पास्ट और प्रेज़ेंट के बीच का बैलेंस बहुत अच्छा है। मेकअप पर थोड़ा काम किया जा सकता था और फ़िल्म की लंबाई भी थोड़ी कम की जा सकती थी।
सारे एक्टर्स अपने अपने रोल में पूरी तरह फिट बैठे हैं। सुशांत सिंह राजपूत ने फिर से बहुत ही अच्छी एक्टिंग की है। वरूण शर्मा ने सेक्सा के रोल में बहुत हंसाया है। हो सकता है कि दिमाग में ये बात आ जाए कि वो ‘फुकरे’ के चूजा जैसे रोल ही लेते हैं, पर क्या फर्क पड़ता है। वो इस कैटेगरी में सुपरहिट हैं। श्रद्धा का रोल थोड़ा कम था, पर जितना भी थी, उन्होंने काम बहुत अच्छा किया। डेरेक के रोल में ताहिर राज भसीन जमे हैं तो हर बात पर मम्मी को याद करते डरपोक तुषार पांडे ने हंसाया है। गालियों में बात करने वाले एसिड के रोल में नवीन पोलिशेट्टी मस्त लगे हैं तो हमेशा ड्रंक रहने वाले सहर्ष शुक्ला का काम भी अच्छा है। मेरा दिल जिसके साथ गया, वो हैं रैगी यानि प्रतीक बब्बर। सीनियर के रोल में हैं, थोड़े विलेन टाइप भी हैं, और हैंडसम भी बहुत हैं। उनकी आवाज़ बहुत अच्छी लगी है और उनका काम उससे भी अच्छा। पता नहीं, इन्हें इतनी कम फ़िल्में क्यों मिलती हैं?
अगर आप कभी हॉस्टल लाइफ में रहे हैं तो बहुत ही आसानी से आप खुद को कनेक्टेड फील करेंगे। जाइए, देख आइए। बच्चे अपने पेरेंट्स को लेकर जाए और पेरेंट्स अपने बच्चों को लेकर जाएं। दोनों के लिए ही ज़रूरी है ये फ़िल्म। यकीं कीजिए कि जब आप हॉल से बाहर आएंगे, तो चेहरे पर मुस्कुराहट के साथ ज़ुबां पर सिर्फ एक ही लाइन रहेगी- ‘ पगले फिकर नॉट’।