सुनो ना,
कहते हैं कि वक़्त गुज़र जाता है
ख़ासियत उसकी यही है बड़ी
फिर ये वाला वक़्त,
भला गुज़रता क्यों नहीं
जैसे किसी ने डाला हो कोई फंदा
इसे फंसाने के लिए
प्रिये,
नहीं रूकता समय किसी के लिए
वक़्त तो ये भी गुज़र ही रहा
देखो तो ज़रा ग़ौर से
जो अटका, वो तुम्हारा मन तो नहीं
किसी एक सोच में आकर,
मन अटकता है,
वक़्त नहीं…
सुनो ना,
मन भी वक़्त से कुछ सीखता क्यों नहीं?
क्यों होता वो इतना कमज़ोर?
क्या फ़ितरत में ही है रूकना इसके?
या फिर है थोड़ा ये डरपोक?
प्रिये,
मन चाहे या ना चाहे
है वक़्त उसको बहुत सिखाता
लगता है वो रूका हुआ,
पर मन से चंचल कौन भला?
बॉंधो मत, करो आज़ाद
फिर देखो तुम मन की चाल