अमीरी और गरीबी के बीच में फंसा इश्क़…और ऐसे इश्क़ को हम ना जाने कबसे देखते आ रहे हैं। अमीर लड़की, गरीब लड़का, दोनों के बीच प्यार और फिर परिवार वालों का हंगामा। इसी थीम को लेकर 2016 में आई मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ और इसी का हिन्दी रीमेक है ‘धड़क’।
कहानी अमीर लड़की पार्थवी (जाह्नवी कपूर) और छोटी जाति के लड़के मधुकर (ईशान खट्टर) की है। दोनों के प्यार की है और इस प्यार का पता चलने के बाद होने वाले हंगामे की है।
तमाम कोशिशों के बाद भी ये नहीं हो पाया कि ‘धड़क’ देखते हुए दिमाग में ‘सैराट’ का ख़्याल ना आया हो। इसकी वजह शायद एक्टिंग हो सकती है। जाह्नवी कपूर का एक्सप्रेशनलेस चेहरा किरदार के साथ इंसाफ कर ही नहीं पाता। ‘सैराट’ की रिंकू राजपुरोहित’ की एक्टिंग याद आने लगती है। राजस्थानी बोलते हुए उनके डायलॉग्स नकली लगते हैं। कोई भी सीन हो, जाह्नवी का चेहरा सपाट ही लगता है। उन्हें दबंग और बागी लड़की के रुप में दिखाया गया है, पर उनकी एक्टिंग में वैसा कुछ नज़र नहीं आता। करने के लिए बहुत कुछ था उनके लिए इस फ़िल्म में, पर वो कर नहीं पाई। कई सीन्स में वो ईशान से बड़ी भी लगी हैं।
ईशान खट्टर की ये दूसरी फ़िल्म है। इससे पहले वो ‘बियॉन्ड द क्लाउड्स’ में नज़र आए थे। ईशान से शायद और भी ज़्यादा उम्मीदें लगी थी, हालांकि उन्होंने फिर भी काम अच्छा किया है। ये भी कह सकते हैं कि फ़िल्म को थोड़ा बहुत जिसने भी संभाला है, वो ईशान ही हैं। आशुतोष राणा पास करने के लिए बहुत कुछ नहीं था, सिवाए गुस्से में देखने के। अंकिट बिष्ट, गोविंद पांडे, ऐश्वर्या नरकर, खराज मुखर्जी, विश्वनाथ चटर्जी- सभी के हिस्से ज़रा सा ही काम था, जिसे उन्होंने ठीक निभाया है। श्रीधर वत्सर की कॉमेडी कहीं कहीं आपको हंसाती है, पर कहीं कहीं थोपी हुई सी लगती है। आदित्य कुमार उर्फ परपेंडिकुलर के हिस्से भी ज़्यादा कुछ नहीं था, पर चेहरे के भाव सही हैं। गिनती के 4 सीन और 1 डायलॉग में भी वो नज़र आते हैं।
डायरेक्शन में शशांक खेतान इस बार खरे नहीं उतर पाए हैं। ‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ और ‘ हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया’ के बाद ‘धड़क’ को देखना निराश करता है। स्क्रीनप्ले भी बहुत अच्छी तरह नहीं लिखा गया है। टूटी टूटी सी लगती है फ़िल्म, कहीं कहीं तो भटकी और धीमी भी। फर्स्ट हाफ जहां बहुत धीमा लगता है, तो वही सेकेंड हाफ में कहानी को कहीं कहीं बहुत ज़्यादा ही स्पीड दे दी गई है। कहानी के दूसरे हिस्से में सिर्फ ईशान और जाह्नवी को दिखाना भी बोर करता है। कह सकते हैं कि जगह जगह फ़िल्म में फ़ोकस गड़बड़ दिखता है।
म्म्यूज़िक अतुल और अजय का है। ‘सैराट’ में भी इन्होंने ही म्यूज़िक दिया था। फ़िल्म का टाइटिल ट्रैक और ‘झिंगाट’ ज़बान पर चढ़ते हैं। बाकी गाने याद आने मुश्किल हैं।
‘सैराट’ को देखते हुए आपका दिल धड़कता है, सांसे थमती हैं, पर ‘धड़क’ धड़कन नहीं बढ़ा पाती। शूरुआत ‘सैराट’ जैसी ही है फ़िल्म की पर क्लाइमैक्स थोड़ा अलग है और सिर्फ क्लाइमैक्स में ही हार्टबीट बढ़ती है थोड़ी। ‘धड़क’ समाज को संदेश तो देती है, पर दिल तक बहुत नहीं पहुंचती। बात मानिए, ‘सैराट’ नहीं देखी तो वो देखिए, अगर देख ली तो फिर से देखिए।