2010 में तेलगु फिल्म आई थी ‘प्रस्थानम’, संजय दत्त ने अपने प्रोडक्शन हाउस से उसी का हिन्दी एडैप्टेशन बनाया है, और इसका नाम भी ‘प्रस्थानम’ ही रखा है।
कहानी बल्लीपुर के एमएलए बलदेव प्रताप सिंह और उनकी फैमिली की है, धोखे की है, राजनीति में फंसे किरदारों की है, दोस्ती की, वफादारी की है।
डायरेक्टर देवा कट्टा ने बहुत सारे किरदारों को लेकर एक पारिवारिक राजनीतिक फिल्म बनाई है, जो देखने में ठीक लगती है। कुछेक किरदारों को छोड़ दिया जाए, जो जबरदस्ती के डाले गए लगते हैं, तो बाकी किरदार अपनी जगह मजबूत हैं। कहानी प्रेडिक्टेबल होने के बावजूद बॉंधे रखती है और अंत का ट्विस्ट भी इंट्रेस्टिंग लगता है। डायलॉग्स अच्छे हैं, जैसे – ‘ पॉलिटिशियन और डायपर बदलते रहने चाहिए, नहीं तो गंदगी फैल जाएगी’, ‘दोगे तो रामायण शुरू होगी, छीनोगे तो महाभारत’। इसके अलावा ‘मिशन कश्मीर’ के बाद यानि 19 साल के बाद संजय दत्त और जैकी श्रॉफ को एक साथ देखना बहुत इंट्रेस्टिंग है।
संजय दत्त अपने पुराने तेवर के साथ हाज़िर हैं। एक मजबूत पॉलीटिशियन और एक बाप, दोनों ही जगह वो जबरदस्त लगे हैं। अली फज़ल ने अपने किरदार को बहुत ही मजबूती से पकड़ कर रखा है। आज्ञाकारी बेटा, अच्छा युवा लीडर, समझदार बड़ा भाई, सभी एंगल को उन्होंने अच्छे से दिखाया है।लव एंगल देने के लिए फिल्म में अमायरा दस्तूर हैं, जिसकी बिल्कुल भी जरूरत नहीं थी। सत्यजीत दूबे ने अपने कैरेक्टर को बहुत अच्छे से पकड़ कर रखा है। अपने बिहेव के डिफरेंट शेड्स को उन्होंने काफी अच्छे से दिखाया है, पर बात तो वही आ जाती है कि इतना स्टीरियो टाइप कैरेक्टर फिर से क्यों? मनीषा कोइराला का कैरेक्टर बहुत मजबूत था, पर जगह कमजोरी के साथ दी गई है। आज के समय में ऐसे फीमेल कैरेक्टर को देखना, जो इतने सालों से हालातों से जूझ रही है पर फिर भी चुप है, चुभता है। जैकी श्रॉफ भी कजरारे नैनों के साथ दिखे हैं। दिखे भी कम हैं, बोला भी कम है। खत्री के रोल में चंकी पांडे का काम अच्छा है। ‘साहो’ के बाद विलेन के रोल में फिर से उन्हें नोटिस किया जाएगा। कम स्क्रीन टाइम में रंग उन्होंने पूरा जमाया है।
गाने ठीक से हैं। टाइटल ट्रेक सुनने में अच्छा लगता है, पर रोमांटिक गानों की ज़रूरत नहीं थी, जिसे जबरदस्ती घुसाया गया है।
थ्रिलर और रोमांच तो है ही, अगर पॉलिटिकल ड्रामा में इंट्रेस्ट है, तो एक बार देखी जा सकती है फिल्म।